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कबीरा नाम विवेक का - Kabir means The Rational One

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कबीर के साहित्य में और कबीर के बारे में भरमाने वाली बातें यहाँ-वहाँ ठूँस-ठूँस कर भरी गई हैं. कहा जाता है कि कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी की संतान थे और कमल के फूल पर पैदा हुए थे. महिलाएँ इसका उत्तर दे सकती हैं कि क्या कमल के फूल पर इंसान पैदा हो सकते हैं? किसी ने देखा हो तो बताए. मुझे इस बारे में कवियों की-सी कल्पना या प्रतीकात्मकता बिल्कुल पसंद नहीं.

मेरी नज़र में लोगों के दिल में बसे कबीर की शख़्सीयत दरअस्ल वह सयानापन है जिसने विवेक और तर्क पर बल दिया. जिसने अंधविश्वास से पीछा छुड़ाने, छुआछूत, जातिवाद, ईश्वरवाद, अवतारवाद, धार्मिकता के दायरों और ब्राह्मणवादी संस्कृति की नकारात्मक बातों के प्रति लोगों चेताया है.

कबीर के तीन-चार पीढ़ी पहले के पुरखे हिंदू थे जिन्होंने जातिवाद के कारण इस्लाम अपनाना बेहतर समझा. हिंदू और मुस्लिम समाज के बीच पले-बढ़े नूर अली और नीमा नामक दंपति के यहाँ कबीर की बनावट हुई.

कबीर बहुत जानकार और विवेकी पुरुष थे. आपने उनकी वाणी पढ़ी होगी. मैंने भी पढ़ी है. उनकी वाणी से लगता ही नहीं कि वे अनपढ़ थे. साक्षरता पंडितों ने अपने लिए रख छोड़ी थी लेकिन कबीर के अपने परिवेश में कबीर का ज्ञान और समझ पंडितों से बेहतर और व्यावहारिक हो गई. वे किसी भी धर्म, सम्प्रदाय की परवाह किये बिना इंसानियत और विवेक भरी खरी बात कहते हैं. चूँकि इस्लाम अपनाने के बाद भी जातिवाद और उसकी व्यवस्था ने उनके परिवार का पीछा नहीं छोड़ा इसलिए वे हिंदुओं-मुसलमानों में फैले जातिवाद और कट्टरपंथ पर बेबाक बोले हैं. कबीर के समय में जातिवाद के खिलाफ उनका छेड़ा कोई जन-आंदोलन साहित्य में पंडितों ने भले ही दर्ज न किया हो लेकिन कबीर की प्रखर वाणी अपना काम कर रही थी. उन्होंने जन-आंदोलन की पुख़्ता ज़मीन ज़रूर तैयार कर दी जिस पर आगे चल कर कई संत और डॉ. अंबेडकर जैसे लोग खड़े हुए.

कबीर की जीवनी चमत्कारों, रोचक-भयानक कथाओं से भर दी गई है जिनकी आज कोई ज़रूरत, महत्व या प्रासंगिकता नहीं है. लोगों को आकर्षित करने के लिए मनोरंजक कथाएँ गढ़ी जाती रही हैं. इन काल्पनिक कहानियों को यदि जाने दें तो ख़ुद कबीर एक विवेकी, तर्कवादी और तर्कशील पुरुष के रूप में सामने खड़े दिखते हैं जो व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक आज़ादी की रोशनी लिए खड़े हैं.

कबीर की वाणी सदियों से लोगों की जिह्वा पर थी लेकिन उसे साहित्य से दूर रखा गया. इसके पीछे इस तथ्य को छिपाने की कोशिश थी कि एक वैदिक परंपरा से अलग एक सशक्त धार्मिक परंपरा भारत में निरंतर चली है. भारत का सबसे अधिक प्रचलित और प्राचीन धर्म बौध धर्म है. कबीर में बौधधर्म की तर्कशीलता, नैतिक मूल्य और मानवीय दृष्टिकोण रचा-बसा है. भारत की ज़मीन से उपजे उस बौध धर्म का व्यापक प्रभाव ही है कि इस्लाम की पृष्ठभूमि जुड़ जाने के बावजूद कबीर सभी मूलनिवासी वर्गों के दिल में बसते चले गए जैसे बुद्ध बसे हुए हैं.

कबीर के समय की एकमात्र पढ़ी लिखी जमात ने कबीर की वाणी को कई तरह बिगाड़ा और कबीर की भाषा के साथ खिलवाड़ किया. आज फैसला करना मुश्किल है कि कबीर की शुद्ध वाणी कितनी बची है, फिर भी, कबीरपंथी और नाथपंथी परंपरा ने कबीर की वाणी को कुछ न कुछ बचा कर रखा है.

'रामचरित मानस'लिखने वाले तुलसीदास दुबे को भी संतों की परंपरा में रखने की कोशिश की गई. दूसरी ओर पंडितों ने क्रांतिकारी सोच वाले कबीर पर 'भक्त'यानि 'दास'का ठप्पा लगा दिया. कबीर के गाए क्रांतिचिंतन (revolutionary thinking)को स्कूलों-कालेजों के पाठ्यक्रम में बड़ी चालाकी से भक्ति का ऐसा अर्थ दिया गया कि कबीर की वाणी भिखारियों के राष्ट्र-गान जैसी दिखने लगी.लेकिन कबीर को ध्यान से पढ़ें तो पाएँगे कि कबीर की वाणी भिखारियों का नहीं स्वाभिमानियों का गीत है.

संतमत की अपनी तकनीकी शब्दावली है जिसमें 'नारी'का मतलब 'कामना'या 'इच्छा'से है. लेकिन मूर्ख पंडितों ने कुछ दोहों के मतलब में हेरा-फेरी कर के कबीर को नारी विरोधी करार दे दिया. जनमानस में दर्ज है कि कबीर सारा जीवन गृहस्थी रहे. संन्यास उनकी शिक्षा में शामिल नहीं था. वे गृहस्थी सत्पुरुष थे और गृहस्थ नारी के साथ ही होता है.

कई लोग समझना चाहेंगे कि कबीर ने ऐसा क्या किया जिसके लिए उन्हें लोग याद करते हैं. इसे इस प्रकार समझने की कोशिश करते हैं. उधर, पुराणपंथी संस्कारों में कर्म फिलॉसफी आधारित ''पुनर्जन्म''का एक विचार है जो ब्राह्मणवाद की देन है. इसका मुख्य उद्देश्य भारत की गरीब जातियों को मानसिक रूप से गुलाम बनाए रखना था ताकि गंदी व्यवस्था के मारे लोग अपने पिछले जन्म और कर्मों को ही कोसते रहें और ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध ज़ोर न पकड़े. ज़ाहिर है कि कर्म और पुनर्जन्म के ये विचार व्यवस्था आधारित अत्याचार और ग़ुलामी के विरुद्ध संभावित संघर्ष को सदियों तक रोकते रहे हैं. समय बदला है और लोगों का नज़रिया भी. वे कर्म फिलासफी और पुनर्जन्म की वास्तविकता को समझने लगे हैं. इधर, कबीर आवागमन से निकलने (''आवे न जावे मरे नहीं जनमें सोई निज पीव हमारा हो'') की बात करते हैं. यह अपने आप में प्रमाण है कि पुनर्जन्म के विचार से मुक्ति संभव है और उसमें भलाई है. भारत का प्रचीनतम दर्शन कहता है कि जो भी है 'अभी'है और 'इसी क्षण'में है. बुद्ध और कबीर 'अब'और 'यहीं'की बात करते हैं, जन्मों की नहीं. इस दृष्टि से कबीर ऐसे ज्ञानवान पुरुष हैं जिन्होंने कर्म आधारित पुनर्जन्म के विचार को काट डाला. इसी को कबीरपंथी लोग 'जय कबीर - धन्य कबीर'कहते हैं.

इस बात की पूरी संभावना है कि पंडितों ने लोकप्रिय हो चुके कबीर के साथ किसी विधवा ब्राह्मणी या एक रामानंद नामक ब्राह्मण की कथा इसलिए जोड़ी ताकि कबीर के नाम पर वे मंदिर बना लें जो ब्राह्मणों का एक बड़ा व्यवसाय भी है. लेकिन आधुनिक खोजों में बताया जा रहा है कि कबीर और रामानंद समकालीन थे ही नहीं. यानि वे कभी आमने-सामने हुए ही नहीं थे. दूसरी ओर कबीरपंथियों के कब्ज़े वाले कबीर मंदिरों में चढ़ा पैसा कबीरपंथियों के सामाजिक विकास के लिए उपलब्ध हो सकता है जिसका अपना महत्व है.वे ऐसे मंदिरों में अपने आस-पास के बच्चों के शिक्षण-प्रशिक्षण का प्रबंध करने लगे हैं.

मेरा इस बात में यकीन है कि कबीर सन् 1398 में लहरतारा के पास नीमा के यहाँ हुए. युवा कबीर का विवाह लोई से हुआ जिसने सारा जीवन परिवार-पति की सेवा में लगाया. उनकी दो संतानें हुई बेटा कमाल और बेटी कमाली. कमाली की गणना भारत की महिला संतों में होती है. कबीर ने जीवन भर मेहनत से कपड़ा बुना-बेचा और परिवार को पाला.


कबीर को प्रताड़ित करने और सताए जाने की बातें उनकी जीवनियों में आती हैं. यहाँ इस बात को ठीक से समझ लेना ज़रूरी है कि कबीर यदि भक्त थे और केवल भक्ति करते थे तो किसी को इस पर क्या आपत्ति हो सकती थी. असल बात यह है कि कबीर जन-जागृति लाने का कार्य कर रहे थे और उनका वह कार्य अब काफी गति पकड़ चुका है.


It will pain if the blood is same – जब ख़ून एक है, दर्द तो होगा

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ख़बरों से गुम अन्य समुदायों के मुकाबले मेघवाल समाज और मेघवंश से संबंधित अन्य जातियां अपनी कुछ--कुछ पहचान वाली बन गई हैं लेकिन इनकी ''अनेकता में एकता''वाली पहचान अभी नहीं बनीहै.

गांव और शहरों में यदि इनके ख़िलाफ़ कुछ घटितहोता है तोउसकीप्रतिक्रिया लगभग नहीं ही होती.ऐसा क्यों है या ऐसा क्यों नहीं है इसके कारणों की व्याख्यामेघवंशी समुदायों के लोग अपने भीतर करते रहते हैं लेकिन खुल कर कभी बाहर नहीं आते.सामूहिक निर्णय लेने का वातावरण ये अभी तक नहीं बना नहीं पाए हैं. अशिक्षा के सन्नाटे को भेदने की हालत में आ रहा यहसमाज थोडा औरसमय माँग रहा है हालांकि समय हाथ से निकलने वाली चीज है.

राजस्थान की बात हैहाँहाल ही में एक के बाद एक ऐसी घटनाएँटींजिनमें मेघवाल समाज पर हिंसात्मक हमले हुए जिनके पीछे जातिगत घृणाऔरजातिगत गरीबी देखी जा सकती है.ये 'डांगावास','घेनरी', 'डेल्टा मेघवाल'के नाम से सोशल मीडिया मेंछाए रहे. एक अव्यस्क छात्रा डेल्टा मेघवाल के बलात्कार, हत्या और उसके शव के साथ हुए अमानवीय व्यवहारका मामला इस दृष्टि से सब से अधिक आंदोलित करने वाला था. डेल्टा की हत्या की पृष्ठभूमि में उस शैक्षणिकसंस्था का नाम भी आया जहाँ वह पढ़ रही थी. इससेरोहित वेमुलाकी सांस्थानिक हत्या (Institutional murder)का मामला भी जुड़ गया.

इन मामलों को मीडिया ने तभी उठाया जब येसोशल मीडिया पर वायरल हो चुके थे. मनुवादी मीडिया की कमीनगीसाफ झलक रही थी. उधर डेल्टा मेघवाल का मामला मेघवाल समाज की सीमाओं को तोड़कर बहुत आगे निकल गया जिसेमूलनिवासियों के विभिन्नसंगठनों की दीवारों पर पढ़ा जा सकता है. इसे सोशल मीडिया की बड़ी कामयाबी के तौर पर देखा जाएगाजिसकी बदौलत ऐसेप्रशासन को हरकत में आना पड़ा जो इस मेघ समाज की उपेक्षा करते हुए बैठा है.

आंदोलन अभी चल रहा है. सभाएं हो रही हैं. अब नेतृत्व पर निर्भर करेगा कि चल रहाआंदोलन समाज के 'एकता आंदोलन'में कब परिवर्तित होता है जिससे समाज के सदस्यों में सुरक्षा की भावना मज़बूत हो सके.

इस बात को रेखांकित करना ज़रूरी है कि हमेशा की तरह इस समाज के नेताओं की आवाजें इन मामलों में सुनने को नहीं मिलीं. वैसे भी इन नेताओं को अपने समाज की आवाज़ उठाने के लिए माइक पकड़ने की अनुमति राजनीतिक पार्टियां नहीं देतीं.इनके लिए मशहूर हो चुका है कि ये केवल तभी मुँह खोलते हैं जब पार्टी इनके हाथ में कोई टुच्ची-सी स्क्रिप्ट पढ़ने के लिए पकड़ा देती है या जब इन्हें जम्हाई लेनी होती है.

दूसरी ओर राजस्थान से उठीएक आवाज पर ध्यान जा रहा है जो भँवरमेघवंशी की है. सोशल मीडिया से होती हुई यहवाज़ जनसभाओं तक पहुँचीहै. इस आवाज़मेंमजबूती और राजनीतिक परिपक्वता की बहुत संभावनाएँ दिख रही हैं. मेघ समाज को ऐसी और इसके जैसीबहुत-सी आवाजों की आवश्यकता पड़ेगी.

("मूल निवासियों में फूट डालना यह यूरेशियनों की नीति है, जिसमें भारत का मूलनिवासी अपने हक-अधिकार से वंचित रहे। एक-एक वर्ग को पकड़कर अलग-अलग पीटना यह यूरेशियनों की चाल है। इस चाल को हमें समझना होगा तथा अपने लोगों को समझाना होगा।" -वामन मेश्राम)






Rohit Vemula - Still an incomplete experiment - रोहित वेमुला - अभी एक अधूरा प्रयोग

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भारतीय मार्क्सवाद को इस नज़र से भी देखना चाहिए कि जब यह भारत में आया तो किसकी राह से चल कर आया. उस समय भारत की पढ़ी-लिखी जमात कौन सी थी और पूँजी पर लागू दर्शन किस का था. क्या वह वर्ग (भारत के संदर्भ में ब्राह्मण) मार्क्सवाद को कमेरे वर्ग तक ले जाने के हिमायती थे? भारत में गठित वामपंथी पार्टियाँ किन के हाथों में रहीं और क्या उन्होंने मार्क्सवाद को लोगों तक ले जाने में ईमानदारी बरती? जातिवाद के मारे इस देश में क्या वे कह पाते कि भारतीय संदर्भ में पूँजीवाद का असली नाम ब्राह्मणवाद (जातिवाद) है?

डॉक्टर अंबेडकर ने जो कार्य किया वह वामपंथी राजनीतिक पार्टियों की विचारधारा के साथ जाता है या नहीं यह कहना मुश्किल है .लेकिन एक बात समझ में आती है कि वामपंथी पार्टियां आजकल चल रहे अंबेडकरवादी आंदोलन के विरोध में कहीं नजर आ सकती हैं. ऐसी आशंका बनी रहेगी. हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला के संदर्भ में दिखा तत्संबंधी प्रयोग अपनी शैशव अवस्था में है. कुछ ओबीसी बुद्धिजीवी इसे एक सफल होते सोशल इंजीनियरिंग के माडल के रूप में देख रहे हैं.



Santram B.A. - संतराम बी.ए.

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श्री संतराम बी.ए.
70 के दशक में मेरा होशियारपुर आना जाना लगा रहता था मेरे पिता श्री मुंशी राम भगत वहां मानवता मंदिर में 14 साल रहे थे.  वहां वे साधु आश्रम के भी संपर्क में आए. उन्होंने साधु आश्रम, होशियारपुर से जुड़े एक सज्जन संतराम बी.. का उल्लेख किया था और साधु आश्रम में ही उन्हें एक पुस्तक मिली थी जिसमें मेघों के इतिहास की कुछ जानकारी थी जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी पुस्तक ‘मेघ-माला’ में किया है. इसमें लिखा था कि मेघों का एक पूर्वज वाराणसी से आया था और जम्मू में आकर बसा था. उसमें छपी कहानी पर उन्होंने काफी प्रश्न चिन्ह लगाए थे. इसके अतिरिक्त मेरे सबसे बड़े जीजा जी श्री सत्यव्रत शास्त्री (चंडीगढ़), जो संस्कृत में एम.. थे, ने भी दो-एक बार संतराम बी.. का उल्लेख करते हुए उनकी प्रशंसा की थी और बताया था कि वे संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान थे. संस्कृत में मेरी कोई रुचि नहीं थी सो अधिक सवाल नहीं किए. पिता जी से सवाल पूछने की आदत बहुत कम थी.

डॉ. अंबेडकर की लिखी ‘Annihilation of Caste' (जाति उन्मूलन)’ पढ़ी थी. उस वर्शन में कहीं संतराम बीए का उल्लेख आया हो सो याद नहीं. ‘जात-पात तोड़क मंडल’ द्वारा लाहौर में आयोजित एक कार्यक्रम  के बारे में भी पढ़ा था. वहाँ संतराम बीए का नाम था. बस इतना ही याद है.

आंखों में तकलीफ के कारण इन दिनों जी-मेल बहुत कम देखा था आज सुबह उसे खोला तो ताराराम जी के भेजे हुए दो मेल प्राप्त हुए थे. एक मेल के साथ एक पुस्तक से फोटो भी प्राप्त हुआ जिसे पढ़ कर हैरानगी से अधिक खुशी हुई. यह संदर्भ Dalit Movement in India and its leaders (1857-1956)पृष्ठ 323 पर मिला है. इस पुस्तक के लेखक श्री आर.के. क्षीरसागर हैं. उसका स्क्रीन शॉट नीचे दिया है :-


ढूँढने पर अन्य एक साइटपर कुछ उल्लेख इस प्रकार मिला.

6. Shri Sant Ram B.A. ( His birthday falls on 14th Feb,2016  )                      
     Shri Sant Ram B.A. a Dalit (Megh) by caste was born on 14th Feburary 1887 at Puranni Bassi Hoshiarpur (Punjab). He had studied up to B.A. and thereafter devoted himself for Dalit upliftment social work. He was also a devoted Arya Samaji sect of Soami Dayanand Saraswati. To abolish caste system he worked to establish his own organization “Jat-Pat- Todak Mandal”. One of the plank of his organization was to promote inter-caste marriages and to get abolished caste system from within the Depressed classes. Since Arya Samajis did not cooperate with Jat-Pat Todakl Mandal ideals, so Sh.Sant Ram made it an independent organization to continue his efforts for  achieving  his set goals.
Shri Sant Ram invited Dr.Ambedkar to preside over 1936 annual convention of the Jat-Pat Todak Mandal to be held at Lahore and also deliver his presidential address. Dr.Ambedkar wrote the Presidential address, but the Mandal  committee wanted some changes in it, to which Dr. Ambedkar did not agree. The convention was cancelled and the presidential address was published by Baba sahib as “Annihilation of Caste” in 1936 itself and this book is considered as one of the best books written by the author. It has gone into so many reprints since then. Sant Ram himself translated into Hindi and published in the Kranti an Urdu monthly magazine. Sant Ram authored many books as well. He breathed his last on 5th June 1988.”


एक और लिंकमिला जिसमें संतराम बीए को ‘लाला’ कहा गया है. एक पुस्तक का भी उल्लेख मिला उसमें संभवतः संतराम जी का भाषण छपा था. उसका स्क्रीनशॉट नीचे दे रहा हूँ :-
FireShot Screen Capture #008 - 'List of Booklets I Dalit Resource Centre' - dalitresourcecentre_com_archive_list-of-booklets-.png
लाला’ शब्द भ्रामक हो सकता है. संभव है उन्हें आर्यसमाज से जुड़े होने के कारण किसी ने भूलवश ‘लाला’ कहा हो. मेरा ध्यान उनके ‘मेघ’ जाति के होने पर टिका है….और इसके साथ ही कुछ सवालों पर मेरा मन अटक गया है. दूसरी बात सामने आई कि प्रजापति समाज संतराम बीए को अपना मान कर उनका जन्मदिन मना चुकाहै. ताराराम जी ने बताया है कि संतराम जी के पिता कुम्हार का कार्य करते थे लेकिन वे मेघ थे जैसा कि ऊपर के स्क्रीन शॉट से स्पष्ट है. किन्हीं परिवारों के व्यवसाय बदल जाने से उनकी जाति बदल जाती है इसका संकेत स्वयं संतराम जी ने अपनी आत्मकथा में दिया है जिसके एक पृष्ठ की फोटो नीचे दी गई है.
उनका जीवन काल 16 फरवरी 1887 से 5 जून 1988 तक (सौ वर्ष से कुछ अधिक) रहा. वे 1945 में कांग्रेस में शामिल हुए और 1946 से 1962 तक पंजाब विधान परिषद के सदस्य रहे.  सन 1936 में जात-पात तोड़क मंडल के वार्षिक अधिवेशन में उन्होंने डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को अध्यक्षीय भाषण पढ़ने के लिए आमंत्रित किया था.  जाहिर है कि वे डॉक्टर अंबेडकर के संपर्क में थे.  उधर एडवोकेट हंसराज भगतभी डॉ अंबेडकर के संपर्क में थे और पंजाब की अछूत जातियों की अनुसूची बनाने का कार्य कर चुके थे.  इससे यह प्रश्न पैदा होता है कि क्या श्री संतराम और एडवोकेट हंसराज भगत का कोई आपसी संपर्क था? यह भी उल्लेखनीय है कि वे दोनों पंजाब विधान परिषद के सदस्य रहे. हंसराज भगत कुछ पहले और संतराम जी कुछ बाद में. क्या संतराम बीए की कोई कैमरे से खिंची बढ़िया-सी फोटो साधु आश्रम, होशियारपुर में उपलब्ध है? 

आखिर में दिल की एक बात कहता हूँ. मेघों के बारे में बहुत-सी नकारात्मक बातें कही जाती हैं, जैसे कि इनमें एकता नहीं होती, ये किसी की नहीं सुनते, ये केंकड़ों की तरह एक-दूसरे की टाँग खींचते हैं वगैरह. मैं इसे महत्व नहीं देता. मुझे इस बात की तकलीफ होती है कि पढ़ने-लिखने के बाद भी मेघों ने अपने बारे में नहीं लिखा. संतराम बीए ने खूब लिखा और आज हमारे पास उस समय के हालात का विवरण उपलब्ध है. उनका लेखन हिंदी साहित्य के इतिहास में अपना स्थान रखता है. उनकी आत्मकथा को भारत सरकार ने आर्काइवकिया हुआ है. यदि एडवोकेट हंसराज जी ने भी लिखा होता तो उनके अनुभव हमारा मार्गदर्शन करते. जो खालीपन रह गया है उसे भरने का काम मेघों को ही करना होगा. इसलिए आप धाराप्रवाह बोलिए और लगातार लिखिए.

“जीओ तारारामजी”.

03-07-2016 
ब्लॉग 26-04-2016 को प्रकाशित किया गया था. इस दौरान प्रो. राजकुमार भगत व्यक्तिगत रूप से पुरानी बस्सी, होशियारपुर गए और श्री संतराम बी.. के घर पहुँचे जहाँ वे रहा करते थे. वे उनके एक भतीजे से और उस गाँव के कुछ अन्य लोगों से भी मिले. मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि वे अपना अनुभव लिखें ताकि उसे यहाँ शेयर किया जा सके. फिलहाल उनकी भेजी हुई फोटो यहाँ दे रहा हूँ.
 
 

ये लिंक भी देखें-
bharatdiscovery.org
हिंदूराष्ट्र ब्लॉग


Ambedkar, Megh Bhagats and 'Woh' - अंबेडकर, मेघ भगत और 'वो'

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ताराराम जी ने एक और ‘मेघ भगत’ को खोज निकाला जो दिल्ली में रहते थे और दिल्ली में मेट्रोपॉलिटन कॉउंसिल के मेंबर (MLA) थे. उनका नाम भगत अमींचंद था. वे अंबेडकर का विरोध करने वाले आर्यसमाजियों में से थे. अभी तक मिली जानकारी के अनुसार कम से कम दो मेघ भगत नामतः श्री हंसराज भगतऔर श्री संतरामबी.. ऐसे लोगों में थे जिन्होंने डॉक्टर अंबेडकर के साथ या उनकी लाइन पर कार्य किया और उनके कार्य का महत्व जानते-समझते थे. इधर मेघ भगत समाज के बहुत कम लोगों ने उस समय डॉक्टर अंबेडकर को सही परिप्रेक्ष्य में समझा क्योंकि इस समुदाय में आमतौर पर यह भ्रांति व्याप्त थी कि 'डॉ. अंबेडकर चमार जाति से हैं'यानि अंबेडकर को स्वीकार करने में बाधा खड़ी थी. उधर चमार समुदाय आज राजनीतिक और सामाजिक रूप से मेघों के मुकाबले मज़बूत दिखता है.

अब इस बात को भारत भर में व्यापक मान्यता मिल चुकी है कि डॉक्टर अंबेडकर ने अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के साथ-साथ महिला समाज की आज़ादी के लिए अतुल्य कार्य किया और उस आज़ादी के लिए संविधान में समुचित प्रावधान भी करा गए. दूसरी तरफ पूरे भारतीय समाज को आंदोलित करने वाले और क्रांतिकारी व्यक्तित्व वाले वही डॉ. अंबेडकर हैं जिनके नाम को मेघ भगत समुदाय के मानस में जगह बनाने के लिए इतना समय लग गया. इस बीच अंबेडकर विश्व के महानतम विद्वानों में शामिल कर लिए गए हैं. लोग उन्हें 'विश्वरत्न'तक कहने लगे हैं.

प्रारंभिक तौर पर आर्य समाज ने मेघों की शिक्षा का प्रबंध किया जो प्रशंसनीय कार्य था लेकिन आगे चलकर उसी आर्यसमाज ने मेघ भगतों का प्रयोग अपने ब्राह्मणवादी या आर्यसमाजवादी कार्यों के लिए किया. मेघों का शुद्धिकरण करके उन्हें हिंदू कहा और हिंदू जातियों में सबसे निचले स्तर पर रख दिया. इससे उनके सामाजिक स्तर में न कोई उत्थान होना था, न हुआ. केवल पूना पैक्ट के अंतर्गत हुए समझौते के अनुसार अंग्रेज़ों के समय से लागू आरक्षण के कारण और भारतीय संविधान में किए गए प्रतिनिधित्व (जिसे लोग आरक्षण कह देते हैं) के प्रावधान के अंतर्गत मिले अधिकार के चलते मेघ भगत प्रगति कर पाए.  

हिंदुओं की जाति व्यवस्था के विरुद्ध आंदोलन छेड़ने वाले डॉक्टर अंबेडकर का मार्ग रोकना आर्यसमाज का लक्ष्य रहा जिसका सबूत संतराम बीए द्वारा गठित ‘जातपात तोड़क मंडल’ के तत्वाधान में प्रस्तावित सेमिनारके रद्द होने के इतिहासमें दर्ज है.

मेघ भगतों में पैठ बना चुके आर्यसमाज ने मेघ जाति में से बनाए अपने आर्यसमाजी पंडितों (पुरोहितों) का इस्तेमाल डॉक्टर अंबेडकर (जो ख़ुद मेघवंशी थे) के विरुद्ध प्रचार करने के लिए किया. वे डॉक्टर अंबेडकर के कार्य और प्रभाव से बौखलाए हुए थे. इस संदर्भ में डॉ. ध्यान सिंह ने अपने शोधग्रंथ ‘पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकास’ (अध्याय-3) में इस बात का विशेष उल्लेख किया है कि आर्यसमाज ने मेघों का शुद्धिकरण करके उन्हें हिंदू दायरे में लाने का कार्य इसलिए किया था ताकि सियालकोट के क्षेत्र में मुसलमानों के मुकाबले हिंदुओं की संख्या बढ़ा कर अंग्रेजों से लाभ प्राप्त किया जाए. यह संदर्भ कई मायनों में महत्वपूर्ण है. कुछ मेघ पुरोहित जाने-अनजाने आर्यसमाज की उस योजना का हिस्सा बने और कुछ ने बेहतर जानकारी मिलने के बाद अपना रास्ता अलग भी किया. उन्होंने भारतीय समाज में आ रही व्यापक चेतना के साथ जुड़ने में अपनी भलाई समझी. नेता टाइप कुछ लोगों के लिए देरी हो चुकी थी. कुछ ने महसूस किया कि उन्होंने दो-दो नावों में पाँव रखा हुआ था.


कहा जाता है कि भगत अमीचंद पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन वे भाषण बहुत अच्छा करते थे. चूँकि वे मेघ जाति से जुड़े थे इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि कमज़ोर थी. लेकिन कांग्रेस और आर्य समाज से जुड़े होने के कारण वे MLA बने. राजनीति में आने के बाद उन्हें आय के अन्य स्रोत मिले इसके संकेत मिलते हैं. आर्यसमाजियों द्वारा लिखे साहित्य में उसका विस्तृत उल्लेख संभावित है. श्री अमींचंद जी ने डॉ. अंबेडकर से निजी तौर परमिले थे और उन्होंने डॉ. अंबेडकर का विरोध करने के लिए माफी माँगी थी, इसका उल्लेख सोहन लाल शास्त्री जी की पुस्तक 'बाबा साहब के संपर्क में 25 वर्ष'में मिलता है.

(विशेष नोट : श्री आर.एल. गोत्रा ने मैसेंजर के द्वारा यह जानकारी भी भेजी हैः- "Factors that might have influenced the behavior of Amin Chand:-
I had heard that Congressites who were also associated with Jaat-Paat Torhak Mandal had arranged his marriage with a Brahmin lady whose thinking (perhaps) might have had some impact over Amin Chand. He was jailed for some period for participating in the 'Bharart Chhorho Movement' launched by Gandhi in 1942.
For information.") 

सुना है श्री अमीं चंद को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा मिला था. (इसकी पुष्टि ज़रूरी है).

(उक्त जानकारी के संयोजन में श्री ताराराम, श्री रतनलाल गोत्राऔर भगत गोपी चंद जी के पुत्र (श्री मोहिंदर पॉल) और गोपीचंद जी के दामाद श्री रामचंद्र का योगदान है. इन सभी का हृदय से आभार) 

Megh Bhagat Freedom Fighters - मेघ भगत स्वतंत्रता सेनानी

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Narpat Singh.jpg
स्वतंत्रता सेनानी मास्टर नरपत सिंह जिन्हें श्रीमती इंदिरा गाँधी ने ताम्रपत्र भेंट किया था
इसी ब्लॉग पर ऊपर बने एक पृष्ठOur pioneersपर कभी लिखा था कि मेघ भगतों में हिमाचल के एक सज्जन श्रीनरपत सिंहजी स्वतंत्रता सेनानी थे जिसकी सूचना दीनानगर की अनीता भगत ने दी थी. मेघ भगतों में किसी के स्वतंत्रता सेनानी होने की यह पहली जानकारी थी जो मुझे मिली. फिर दिल्ली के एक श्रीअमीं चंदका नाम ताराराम जी के माध्यम से सामने आया जिसके बारे में श्री आर.एल. गोत्रा जी ने सूचनाएँ दीं. दिल्ली के श्री मोहिंदर पॉल जी ने एक अन्य मेघ भगत श्री रामचंद जी के हवाले से सूचित किया था कि अमीं चंद जी स्वतंत्रता सेनानी थे. अमीं चंद जी ने पृथ्वीसिंह आज़ाद के साथ कुछ देर तक कार्य किया. उन्होंने 'हरिजन लीग'नाम की एक संस्था भी बनाई थी. इस बीचतारारामजी ने एक अन्य सज्जनप्रभ दयाल भगतका संदर्भ भेजा जो ऊना से थे और स्वतंत्रता सेनानी थे (ब्राउज़र-यूआरएल सहित एक स्क्रीन शॉट) नीचे लगा दिया गया है. लेकिन इनके बारे में ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं हो पा रही है. मेघ भगतों के कुछ वाट्सएप ग्रुपों से अनुरोध किया गया है कि इनके बारे में जानकारी प्राप्त होने पर मेरे इस जी-मेल पते bhagat.bb@gmail.com पर भेजने की कृपा करें. यदि इनके 'मेघ'होने का प्रमाण मिल जाए तो हमारे समुदाय के तीन ऐसे मेघों के बारे में पक्का प्रमाण हो जाएगा कि वे स्वतंत्रता संग्रामी (Freedom Fighter) थे. होशियारपुर ज़िले में मेघ समाज बहुत देर से बसा है इसकी पुष्टि हो चुकी है.
मास्टर नरपत सिंह.png
क्योंकि पढ़े-लिखे मेघों में से कुछ ने ही अपनी जानकारी, अपने अनुभवों और अपने कार्य के बारे में लिखा है इसलिए मेघ भगत जाति के बारे में लिखते समय कुछ प्रमाणों को जोड़ कर कुछ अनुमान भी लगाना पड़ता है. उक्त स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में अपने अतिरिक्त अनुमान यहाँ दे रहा हूँ.


जिस प्रकारएडवोकेट हंसराज भगतहोशियारपुर के श्री मंगूराम मुगोवालिया और आदधर्म से प्रभावित थे उससे लगता है कि होशियारपुर के हीसंतराम बीएजो मेघ थे और आगे चल कर जिन्होंनेजातपात तोड़क मंडलबनाया, वे भी आदधर्म आंदोलन को किसी न किसी रूप में जानते होंगे. नरपत सिंह जी के बारे में भी अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि वे भी होशियारपुर और ऊना में चल रहे सामाजिक परिवर्तन से वाकिफ़ थे. ये सभी किसी न किसी रूप में आर्यसमाज के संपर्क में रहे और राजनीतिक दल के रूप में उन दिनों कांग्रेस का बोलबाला था सो ये कांग्रेसी और उसके आंदोलनों से प्रभावित रहे होंगे. नरपत सिंह जी ने दिल्ली में डीएवी स्कूल में अध्यापन कार्य किया था. उन्हें हिमाचल प्रदेश की कांग्रेस की राज्य सरकार और इंदिरा गाँधी की केंद्र सरकार ने ताम्रपत्र भेंट किए हैं.


एडवोकेट हंसराज भगत 1937 में मंगूराम जी के आदधर्म संगठन के समर्थन से पंजाब विधान परिषद के सदस्य बने. मंगूराम जी 1946 में पंजाब विधान परिषद के सदस्य रहे और संतराम बीए भी 1946 में पंजाब विधान परिषद के सदस्य बने. यहीं से एक और तार आ जुड़ता है कि मंगूराम मुगोवालियाग़दर पार्टीके संस्थापक सदस्यों में से थे. होशियारपुर के मेघों के बारे में जानकारी लेते समय इस लीड पर भी कार्य होना चाहिए.

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आर्य समाज का शुध्दिकरण आंदोलन और मेघ: Tararam

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यह स्पष्ट हो चुका है कि मेघ एक प्राचीन जातीय समूह है, जिसका हिन्दुकरण या ब्रह्मणिकरण धीरे धीरे हुआ अर्थार्त इस कबीले के कई लोग हिन्दू धर्म की विभिन्न जातियों में शुमार हुए. कई लोग ब्राह्मण और कई क्षत्रियों में शुमार हुए तो कई विभिन्न धर्मों में समाहित हुए. बचे हुए लोगों का जम्मू कश्मीर में ब्राह्मणी करण का सिलसिला बहुत बाद में हुआ. जो लोग ठक्कर और ठाकुर जातियों की उत्पति के इतिहास को जानते है वे इस तथ्य को अच्छी तरह से समझते है. आर्य समाज का शुद्धि आंदोलन भी इनको हिंदु धर्म में समाहित करने वाला ही एक पर्यत्न था. मसलन वे इस प्रयत्न में ब्राह्मण या क्षत्रिय तो नहीं बन सके पर भगत बन कर रह गए, इसे आज हम अच्छी तरह से जानते है. इस पर मैं अलग टिपण्णी लिखूंगा, फ़िलहाल जम्मू के मेघों के राजपूती करण और ठाकुर बनाये जाने के 19वीं 20वीं शताब्दी के कुछ दृष्टान्त आपके सामने रखना चाहता हु, जो कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की पुस्तको में है.
यह सुविदित है कि राजपूती करण एक सामाजिक और राजनैतिक प्रक्रिया थी, जिसे मैंने मेघवंश इतिहास और संस्कृति भाग दो में उल्लेखित किया है. जिन्हें इस प्रक्रिया के बारे में जानना है वे उसे वहां से देख ले, अस्तु हम मुसलमानों में भी राजपूत पाते है और हिंदुओं में भी...!
बाद में यह प्रक्रिया सिर्फ राजकार्य से बाहर निकालकर कृषक वर्ग तक आ पहुंची। इस स्तर पर भी कई जातियां जो वैदिक या हिन्दू घेरे में नहीं थी, वे भी राजपूत ओहदा पाने को आकुल हुयी और पहाड़ी इलाकों में कई जातियों ने इस दौर में हिन्दू व्यवस्था में अपने आपको पहले ठक्कर और बाद में ठाकुर और अंततः राजपूत बना दिया या बन गयी. शुरूआती दौर में जातीय संघर्ष रहा पर धीरे धीरे वे खप गयी और उसी नाम से संज्ञात की जाने लगी।
एक स्रोत का इस सम्बन्ध में निम्न कहना है:
'-----within the ranks of Rajputs, there are groups of peasant groups, having failed to get into two 'high' categories, were to be classified as depressed classes, ie, Dalits. Here, let me briefly examine two cases, the formation of 'Thakkar Rajput' and that of Megh. Jammu's representatI've Dalit castes.
Thakkars are groups of tillers in the region's hikly areas, and are generally considered non-Rajput origion of illigal off springs of the royal Rajput families,( Note, THAT THAKKER IS RATHER A GENERIC CONCEPT, WHICH COVERS VARIOUS CASTE/SUB CASTE GROUPS). People used to say that they after practised widow-remarriage, but not as a reformist action...
In 1925, probably to reduce contempt against them the maharaja of the state ordered to address them as 'thakur' (a common title for Rajput) instead of Thakker.( Gupta, 1981, 93-96, Charak and Billawaria, 2006, 187). It seems to the author that these hill dwellers were originally unconnected to the people of plains and their newly adopted pan-Indian Hindu codes and only recently joined the rank of 'Rajput', when the need to locate themselves somewhere in the Varna system had arisen, possibly in the face of various colonial records including censuses.
Megh (also called Kabir Panthis) might embody the character of Jammu,s Dalits, as numerically they represent the region's Dalit Community. They has been the largest Dalit group in the region, supposedly comprising more than one-third from the plain of Jammu to the hills of Doda; they are traditionally agriculturists or weavers.
The history of Megh in Jammu is quite discursive regarding the origion of discrimination against them. It is said that they used to be non-vegetarian, but under the influence of one guru from Keran, Jammu, the community took an oath in 1879 not to take meat thereafter, and to fine those community members, who breached this rule ( Pandita et.al 2003, 500). It is also known that some Megh families of the region keep thakur dwara, the religious institution of Rajputs in honour of Vishnu, in their house.( Gupta, 1981, 105). These episodes might indicate the existence of a historical process where a group of people now called Meghs tried to adopt the upcoming Hindu cultural codes during the late nineteenth century, also, there is a possibility that these people originally shared some customs and cultural institutions that are today deemed exclusively Rajput.
Regarding escalated discrimination against Meghs of Jammu, there is one particular incident that in worthy of mention here. An active Arya Samaj leader was killed in 1923 in a village near Akhnoor town ( Jammu District) for his attempt to uplift Meghs. The culprits wanted to prevent the establishment of pathshala (school) for local Meghs, for the inauguration of which Arya Samaj leader had visited the village ( Sharma, 1996). This episode suggest that, by the 1920s the discrimination against Meghs had taken a fierce form in Jammu, also, there is a possibility that such caste discrimination was specific to this era ( late nineteenth to early twentieth century ). It is known that Megh -related notion of pollution did not exist generally in the hills of this region before the early twentieth century (Gupta, 1981, 105). Probably those hierarchical Hindu codes had not reached these hills then.
Interestingly, some communities in between Meghs and the Rajputs . Basith, a community of Hindu farmers in remote Poonch district is one such instance. They are officially included in the category of scheduled caste, and some take them as a sub caste of Megh, but generally they have been recognized as Rajput, especially after the 1965 Indo-Pakistan War ( where Basiths played an active role in defending India, for the act of which they were awarded the title of Vashishth Rajput by the then C. M. Of J&K ) ( Pandita et.al. 2003, 107, 107-14, 500). Bhagat may be another instance: they are generally considered to be part of Megh community, but in some area (Panjgrain of Ramanagar), they are taken as the descendants of Thakur (Rajput). (Pandita et.al., 2003, 2003, 134-43).
This description is based on a book published by the Cambridge University entitled- ' Mepping Social Exclusion in India: Caste, Religion snd Borderlands, edited by Paramjit s. judge.

आर्य समाज का शुध्दिकरण आंदोलन और मेघ:
यह सभी जानते है कि आर्य समाज की स्थापना दयानंद सरस्वती ने की थी। यह विशुद्ध रूप से हिन्दू धर्म का एक सुधारवादी आंदोलन के रूप में सारे भारत में जाना गया और इसका प्रभाव भी पड़ा। यह मात्र प्रचारक रूप ही नहीं बल्कि सामाजिक रूढ़ी वादिता पर प्रहार भी था। कुलमिलाकर इसे एक राष्ट्रवादी नजरिये से देखा गया और जो हिन्दू वर्ण व्यवस्था में नहीं थे या जो उसे नापसंद करते थे या जिन्हें दूसरे धर्म और पंथ पसंद थे, ऐसे अनेकानेक लोगों को घेरकर वापस हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था में उन्हें स्तर प्रदान करने की गवेषणा से लवरेज यह एक जातीय या राष्ट्रवादी आंदोलन था। इसका मंतव्य बढ़ते हुए ईसाई धर्म और मुस्लमान धर्म को रोकना भी था। इसका प्रभाव भी पड़ा, इसे नकारा नहीं जा सकता।
दयानंद सरस्वती के बाद सबसे ज्यादा प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में श्रद्धानद जी उभरे थे। श्रद्धानंद जी के और बाबा साहेब डॉ आंबेडकर के बीच कई बार विचारों का आदान प्रदान हुआ। हिन्दू कोड बिल के समय जब बाबा साहेब ने सभी से विचार विमर्श किया तो उनमें श्रद्धानंद जी प्रमुख थे, जिन्होंने बाबा साहेब के मंतव्य के अनुरूप हिन्दू ग्रन्थों से कई उद्धतरण बाबा साहेब को उपलब्ध कराये। हिन्दू कोड बिल के समय उनके व्यकिगत सचिव रहे श्री सोहनलाल शास्त्री जी ने इस सम्बन्ध में मुझे कई रोचक बातें बताई थी। कुछ उन्होंने अपने संस्मरण में भी लिखी है। यहाँ उनका सन्दर्भ उचित नहीं है, परंतु यहाँ यह जानना महत्त्व पूर्ण है कि जात-पांत तोड़क मंडल की आर्य समाजी गतिविधियों का उस समय बोलबाला था और श्रद्धानंद जी इसमें अग्रणीय थे। इन गतिविधियों का केंद्र लाहौर था। संतराम बी.ए. के इस संबंद्ध में किये गए कार्यों को भी सभी जानते है।
इस समय तक भारत के कई प्राचीन जन समूह हिन्दू धर्म में समाहित नहीं थे। जिसमे सबसे बड़ी संख्या मेघों की थी। सिंध और मरुस्थल में बसे मेघों के बीच आर्य समाज की पुरजोर घुस पैठ हुई। चूँकि वे हिन्दू बाह्य लोग थे और अन्य कई समुदायों से ठीक ठाक थे तो उनको हिन्दू ढांचे में खींचना और फिट करना आर्य समाज को सुभीता लगा। जहाँ जहाँ इनकी सघन बस्तिया थी, वहां वहां आर्य समाज की गति विधिया बढ़ गयी और हजारों की संख्या में मेघों का शुद्धिकरण करके उन्हें हिन्दू धर्म में अंगीकृत किया गया। ऐसा किया जाने के बावजूद भी उनके सामाजिक स्तरीकरण की समस्या फिर भी ज्यों की त्यों बनी रही। यह भी एक ऐतिहासिक सच्चाई है।
सिंध, कश्मीर किंवा जम्मू और मारवाड़, मेरवाड़ा आदि के मेघों का त्वरित गति से शुद्धिकरण किया गया। लाहौर और मारवाड़ के बीच सीधे सम्बन्ध थे और मेघ लोग इधर से उधर आते जाते रहते थे। स्वयं दयानंद सरस्वती भी मारवाड़ के जोधपुर में आये थे, यहाँ का राजा और खेतड़ी का राजा उनके शिष्य थे। परंतु दयानंद सरस्वती फिर भी अपने शिष्य राजाओं को यह आदेश नहीं दे सके कि हे! राजन, अब आपके राज्य में यह फरमान जारी कर दो कि आज के बाद कोई भेदभाव या छुआछूत नहीं करेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि यह एक हिन्दू जातीय राष्ट्रवादी आंदोलन मात्र था! जिसमे हिंदुओं की नफरी को बढ़ाना मात्र था न कि जात पात या वर्ण व्यवस्था को तोड़ना था। लाहौर, स्यालकोट, जम्मू, जोधपुर, अजमेर और अन्य कई जगहों के मेघों का शुद्धिकरण करके उन्हें हिन्दू बनाया गया। आज वे वहीँ के वंही है, कुछ के नाम बदल गए, कुछ वापस लोट गए. यह सब इसलिए हुआ कि आर्य समाज में भी दबदबा तथाकथित जातीय हिंदू लोगों का ही बना रहा और जातीयां ज्यों की त्यों बनी रही.उसमे कोई विशेश तबदीली नहीं हुयी. अतः धीरे धीरे मेघों ने अपने आप को इससे अलग कर दिया।
यहॉ मैं कुछ ऐतिहासिक तथ्य रखना चाहता हूँ, जिसे समझना बहुत जरुरी है। ये तथ्य सीमित है परंतु इनका प्रभाव सम्पूर्ण मेघ समाज पर पड़ा और पड़ रहा है, चाहे वह जम्मू कश्मीर का हो या राजस्थान का या पंजाब का या गुजरात या हरियाणा आदि का....। इसी मंतव्य से इसे यहाँ उदधृत कर रहा हूँ.
आर्य समाज ने यह अनुभूत किया कि हिन्दू धर्म की हानि या क्षति न केवल गुणात्मक रूप से गिरी है बल्कि संख्यात्मक रूप से भी गिर रही है। उन्होंने आंकड़ो के हिसाब से देखा की 1881 से लेकर 1911 तक कुल 9252295 से 8773621 की हिन्दू जनसँख्या कम हुयी है। उन्होंने जनसँख्या के आधार पर यह विश्लेषण किया कि पंजाब में यह कमी 43.8% से 36.3% तक की हुई है. जबकि पंजाब में मुसलमानो की जनसँख्या वृद्धि 50.7 तक की हुई है।....अतः जो लोग ईसाई या मुस्लमान बन गये है, उन्हें वापस हिदु घर्म में शुद्धिकरण करके लाया जाय। यह ध्यान देने वाली बात है कि यह जनसँख्या वृद्धि या कमी आज भी हिन्दू राजनीति का एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक औजार बना हुआ है। जो भी हो, बात यह है कि शुद्धिकरण का पेच जातीय जनसँख्या के आंकड़ो की राजनीति से प्रेरित रहा था और आज भी है। जबकिं हिन्दू बाह्य आज की तथाकथित sc या st की प्रेरणा का स्रोत वृद्धि या कमी नहीं था बल्कि एक समाज या धर्म विशेष में अपना स्थान बनाना था अर्थात सामाजिक ढांचें में अपना एक जातीय क्रम निर्धारित करवाना या पद प्राप्त करना था। यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जिनका शुद्धिकरण किया गया वे उस समय हिन्दू नहीं थे, तभी तो उन्हें शुद्धिकरण से हिन्दू बनाया गया। यह जाति परिवर्तन नहीं था और न ही किसी जाति को जातीय पैमाने में ऊँचा या नीचा करना था. बल्कि विशुद्ध रूप से हिन्दू बाह्य लोगों को हिन्दू धर्म में पहचान देना मात्र था... और भी कई तथ्य है, जिसका अनुमान लगा सकते है. उन सबके साथ......।।।।
सन 1884 से आर्य समाज ने शुद्धि की रस्म शुरू की। इस शुद्धिकरण में आर्य समाजी लोग हिन्दू धर्म के प्रतिष्ठ ब्राह्मणों द्वारा कुछ मंत्रोच्चार की प्रक्रिया के द्वारा इसको अंजाम देते थे। उनकी वकालत करने वाले लोग भी ब्राह्मण ही हुआ करते थे। इस तथ्य को आर्य समाज के रिकार्ड्स से जाना जा सकता है। गुरदासपुर में राम भज दत्त नाम के ब्राह्मण जागीरदार का नाम इस सम्बन्ध में विशेष रूप से लिया जाता है, जो एक मोहयाल ब्राह्मण था और जो लाहौर में वकील था। हालाँकि यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि स्वामी दयानंद ने ऐसी किसी शुद्धि की शुरुआत नहीं की और आर्य समाज के रिकार्ड्स से यह तथ्य उजागर होता है कि शुद्धि का पहला व्यवस्थित रीतिविधान या क्रिया कलाप अमृतसर के आर्य समाज से शुरू हुई!

आर्य समाज का शुद्धिकरण आंदोलन और मेघ: 2
सन 1884 से आर्य समाज ने शुद्धि की रस्म शुरू की। इस शुद्धिकरण में आर्य समाजी लोग हिन्दू धर्म के प्रतिष्ठ ब्राह्मणों द्वारा कुछ मंत्रोच्चार की प्रक्रिया के द्वारा इसको अंजाम देते थे। उनकी वकालत करने वाले लोग भी ब्राह्मण ही हुआ करते थे। इस तथ्य को आर्य समाज के रिकार्ड्स से जाना जा सकता है। गुरदासपुर में राम भज दत्त नाम के ब्राह्मण जागीरदार का नाम इस सम्बन्ध में विशेष रूप से लिया जाता है, जो एक मोहयाल ब्राह्मण था और जो लाहौर में वकील था। हालाँकि यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि स्वामी दयानंद ने ऐसी किसी शुद्धि की शुरुआत नहीं की और आर्य समाज के रिकार्ड्स से यह तथ्य उजागर होता है कि शुद्धि का पहला व्यवस्थित रीतिविधान या क्रिया कलाप अमृतसर के 'आर्य समाज'से शुरू हुआ।
पहला व्यवस्थित शुद्धिकरण या धर्म परिवर्तन का कार्यक्रम अमृतसर के आर्य समाज द्वारा सम्पादित करवाया गया। यह एक सफल कार्यक्रम बन पड़ा था, अतः इस क्रिया विधान को आगे जाकर व्यापक रूप और दिशा दी गयी। इस कार्यक्रम में ऐसा क्या था कि इसने शुद्धिकरण के क्रियाकलाप को एक आंदोलन का रूप दे दिया। कई बातें है कुछ छोटी है और कुछ बड़ी, वे सभी विचारणीय है। परंतु, जो सबसे महत्वपूर्ण है वह यह है कि इस क्रिया विधान को एक पुरातनपंथी ब्राह्मण के द्वारा संपन्न करवाया गया। जो हिन्दू धर्म के हिसाब से सर्वोच्च और आधिकारिक प्रमाण माना जाता है। अतः इसका व्यापक प्रभाव पड़ा या उसके माध्यम से लोगों को आकर्षित किया गया। उस ब्राह्मण महाशय का नाम तुलसी राम बताया जाता है। वह पुरातनपंथी ब्राह्मणों का भी बाप था, कहने का तात्पर्य यह है कि वह उस समय का सबसे ज्यादा पुरातन पंथी था say it he was the most orthodox of the orthodox. वह पुरातनपंथी होने के साथ ही बहुत बड़ा विद्वान था, उसकी लोगों में बहुत बड़ी मान्यता और प्रतिष्ठा थी. वह ब्राह्मणों का सबसे अग्रणीय और पूजनीय माना जाता था. उसकी दूर दूर प्रसिद्धि थी. ऐसे में अगर कोई इस प्रकार का कोई कार्य अंजाम दे तो उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव क्या पड़ सकता है, आप सहज ही अनुमान लगा सकते है. ये सब एक सोची समझी रणनीति के तहत ही किया गया गया था. जिसके जाल में कई भोली भाली जातियां आ गयी और अपना स्वतंत्र वजूद खो बैठी, जिसमे मेघ कौम भी एक है। इस क्रिया विधान में किया क्या गया?
जो भी किया गया वह संवेदित था! शुद्धि कारित लोगों को हिन्दू धर्म के एक बाह्य लक्षण, जनेऊ से विभूषित किया गया अर्थात उन्हें जनेऊ पहनाया गया और गायत्री मन्त्र दिया गया। वे लोग बड़े प्रफुल्लित हुए थे कि आज तक उनकी पहचान न हिन्दू धर्म में है और न मुसलमान धर्म या ईसाई में तो आज उन्हें एक पहचान मिल गयी ! वे जनेऊ और गायत्री के कायल हो गए, अपने सब दुःख दर्द को भूल गए। पर हकीकत में यह उनकी दासता की बेड़ियों की नयी शुरुआत थी। इसे आजादी के बाद आज अनुभूत भी किया जा रहा है। न केवल अमृतसर बल्कि और भी कई जगहों में उन्हें इसी तरह से फांसा गया। मारवाड़ के जोधपुर आदि इलाकों में भी ऐसा ही हुआ, पर मारवाड़ के मेघों के सामने एक प्रश्न था कि उनके सामने ही राजपूत तो बिना जनेऊ के भी राजपूत उच्च जातीय ही कहलाते है, द्विज है। ब्राह्मण भी वही है, और जनेऊ पहनकर भी वे अगर निम्न ही रहते है तो इस प्रकार का शुद्धिकरण उन्हें मंजूर नहीं. उनका मोह भंग हो गया और मारवाड़ में आर्य समाज की पैठ इनमे कम हो गयी.। उनके साथ ही कुछ शुद्र लोगों ने यथा माली आदि लोगों को भी शुद्धिकरण द्वारा बाड़े में बांधा गया था, वे फिर भी बने रहे, पर मेघों का मन उचट गया। आज बिरले ही मेघवाल मिलेंगे जो आर्य समाजी हो। इस यज्ञोपवीत और गायत्री से जुडी और भी कई बातें है, वे आप विश्लेषित कर सकते है।
आर्यसमाज के इस शुद्धिकरण की घटना की इससे आगे की बात और भी महत्वपूर्ण है, अतः इस घटना विशेष के प्रभाव को जानने से पहले इसको जानना जरुरी है। वह है- शुद्धिकरण के बाद उन लोगों को हरिद्वार भेजना। पंडित तुलसि राम इस प्रकार से शुद्धिकृत किये हुए लोगों को एक शुद्धिपत्र लिख कर देते थे और उसके साथ उन्हें हरिद्वार में जाकर गंगा में डुबकी लगाने/स्नान करके शुद्ध होने का उपदेश देते थे। उधर हरिद्वार व गंगा आदि की महिमा का अपरंपार बखान और महिमा का प्रचार भी कथा कीर्तनों द्वारा बढ़ चढ़कर किया जाने लगा। यह सब पुनः उन्ही प्रक्रियाओं के अंग थे, जो भोली भाली जनता को झांसे के फंदे में बाँधने वाले। अगर बाद की घटनाओं का विश्लेशण करें तो यह बात सत्य सिद्ध हो जाती है। इससे पहले मेघों का हरिद्वार और गंगा से कोई लेना देना नहीं था, पर इस प्रक्रिया से उनका हरिद्वार से अटूट सम्बन्ध बनता गया और आज भी वह अटूट है। इस प्रकार से शुद्धिकरण से आये मेघ और जिनकी शुद्धि नहीं हुई थी, दोनों में कुछ समय तक रस्सा कशी भी चली पर अंततः कभी उसने समर्पण किया तो कभी इसने पर, हरिद्वार और गंगा स्नान का खेल चलता रहा। कई बार इस पर मेघों की बड़ी बड़ी पंचायतें भी हुई पर अभी तक यह सभी मेघों में अनिर्णीत है. हरिद्वार और मेघों की पोस्ट पर इस पर और लिखा जायेगा, यहाँ सिर्फ यह समझना है कि शुद्धिकरण के साथ ही मेघों में हरिद्वार के प्रति न केवल उत्कण्ठा जागृत हुई बल्कि उसका पुंछ भी पकड़ लिया गया!

आर्य समाज का शुद्धिकरण आंदोलन और मेघ: 3
हिन्दू धर्म की जानकारी रखने वाला यह तथ्य अच्छी तरह से जानता है कि यज्ञोपवीत वैदिक विधि विधान में द्विज लोगों का विशेषाधिकार है। जब हिन्दू बाह्य लोग इससे संपन्न हुए तो उनमे एक उच्चता के भाव का संचरण होना वाजिब था, परंतु वह तो एक छलावा था, जिसे ये लोग बाद में समझ पाये। क्योंकि न तो वे क्षत्रियों में शुमार हो सके और न ब्राह्मणों में। हिन्दू बाह्य होने पर उनका अपना जो स्वतंत्र वजूद था वह भी ख़त्म हो गया और जातीय संस्तरण के गंदे खेल में उलझ कर रह गए। जिसे जातीय संघर्ष कहा जाता है। अर्थात ऐसे लोग जो जाति में परिणित हुए वे किन्ही जातियों से अपने को ऊँचा साबित करने में लग गए तो दूसरे उन्हें नीँचा । यह रस्सा कशी अभी भी व्याप्त है और उसे ख़त्म नहीं किया जा सकता क्योंकि हिन्दू धर्म वर्ण और जाति पर टिका है। और कोई भी जाति तभी ही जाति है जब वह किसी से ऊँची हो और किसी से नींची। ब्राह्मण से ऊँचा कोई हो नहीं सकता। और नींचे का कोई पैमाना नहीं। अतः जितनी भी नीची जातियाँ है वे एक दूसरे को ऊँचा नीचा करने और बनाने में लगी रहती है। जो ऊँची है उसका मानना यह होता है कि दूसरी जाति उसका स्थान नहीं ले ले और जो नीची है वह सोचती है कि अगर यह ऊँची हो गयी तो उसका वजूद और नीचा हो जायेगा। अतः शुद्धिकरण के बाद यह प्रक्रिया पनपने लगी, जब उनका कोई स्थान नियत सा हो गया, तब से और ज्यादा! इस सम्बन्ध में और भी कई तथ्यों पर गौर किया जा सकता है। यहाँ अमृतसर के शुद्धिकरण की बात हो रही थी तो बात यह है कि यह बहुत ही छोटे पैमाने पर शुरू किया गया था पर उसका ध्येय बहुत ही आगे की सोच का था। शुरुआत में एक्के दुक्के लोग शुद्धिकृत हुए, पर एक समय तो बाढ़ सी भी आ गयी थी और फिर रुक गयी। ऐसा क्यों और कैसे हुआ?
अगर आंकड़े देखे जाय तो सन् 1884 में अमृतसर में 39 लोगों को शुद्धिकृत कर हिन्दू धर्म में लाया गया। 1885 में 55 लोगों को शुद्धिकृत किया गया। यह ट्रेंड महाशय मुंशीराम द्वारा इसमें पुरे संकल्प से लग जाने के बाद तीव्र गति में आया। इस शुद्धिकरण का ऐसा नहीं है कि विरोध नहीं हुआ हो। अर्थात इसका कई जगहों पर विरोध भी हुआ। कुछ जगहों पर दिखावे का विरोध था तो कुछ जगहों पर अन्यान्य कारणों से। पुरातनपंथी हिंदुओं की ओर से भी विरोध हुआ तो मुसलमानों की ओर से भी। उस समय के विरोध को आज के धर्मान्तरण के विरोधों के सन्दर्भ में जान सकते है। तात्पर्य यह है कि यह निर्विरोध नहीं था। D.A. V कॉलेज द्वारा भी विरोध हुआ......। परंतु 1892-93 से मुंशी रामजी इस हेतु पूर्ण समर्पित हो चुके थे, वे लोगों को सहमत करने में सिद्धहस्त थे। उन्होंने सन् 1879 में अमृतसर में सिंहंसभा के साथ अपनी एक 'शुद्धि सभा'का गठन किया था। उसके माध्यम से वे शुद्धिकरण को आंदोलन का रूप देने में जुट गए। यहॉ यह ध्यान देने योग्य है कि मेघों ने 1879 में मांसाहार का त्याग संकल्पित किया था । आंकड़े बतलाते है कि 1895 में इस शुद्धि सभा नें14 और 1896 में 226 लोगों की शुद्धि की। इसमे व्यक्तिगत शुद्धिकरण से पारिवारिक शुद्धिकरण की पहल हुई अर्थात अब परिवारों का शुद्धिकरण किया जाने लगा और विभिन्न जातीय समूह इस शुद्धिकरण में लिए जाने लगे।

आर्य समाज का शुद्धिकरण आंदोलन और मेघ: 4
सन् 1896 में इन्ही प्रयत्नों के फलीभूत जुलाहों/बुनकर लोगों का सिख धर्म में सिख रोहतियास के रूप में शुद्धिकरण करके उन्हें सामिल किया गया। सन् 1896 में मुंशीराम द्वारा पहला सामूहिक शुद्धिकरण किया गया। ये राठी लोग थे। (suddhi of rathias).it is stated in one source as under:
"The first mass purification, reports Munshi Ram, began with the SUDDHI OF RATHIAS, a sect of a Sikhism who were not allowed to sit on the same carpet even by the Khalsa..... In the middle of 1896 AD they applied for their Suddhi and within the next few months a thousand and more were taken into Arya Samaj as brethren, entitled to full social and religious rights.( Shraddhananda, 1926, Pareek, 1973, 136.) "
यह ध्यान देने योग्य है कि जिस सिख धर्म को स्वामी दयानंद ने हिन्दू धर्म की एक शाखा के रूप में माना था, उसके और आर्य समाजियों के रिश्तों में भी खटास आ गयी। कई कारण रहे होंगे। अस्तु 19वीं शताब्दी के अंत होते होते सिखों ने आर्य समाज से अपने को अलग कर लिया। कहा यह भी जाता है कि 1849 में मुसलमानों के जिहाद से प्रभावित होकर ही यह शुद्धिकरण आर्य समाज ने अपनाया था। सन् 1907 से 1910 के बीच आर्य समाज का ध्यान मुसलिम राजपूतो का शुद्धिकरण करने पर केंद्रित रहा..........। सन् 1911 के जनगणना के आंकड़ो के अनुसार उत्तर पश्चिमी रियासतों में आर्य समाज द्वारा 1052 ऐसे लोगो का शुद्धिकरण कर के उन्हें हिन्दू धर्म में समाहित किया गया। ( saurce: Census of India, 1911, vol. 15, pp 134)
आर्य समाजियों की इन गतिविधियों से मुसलमानों और आर्य समाजियों के बीच एक तरह से युद्ध छिड़ गया, जिसका यहाँ वर्णन आवश्यक नहीं है. परंतु इस प्रकार की गतिविधियों से हिन्दू और मुसलमानों में तनाव हुआ और एक दूसरे के विरुद्ध पैम्फलेटबाजी भी शुरू हुई। पेशावर में पंडित लेख राम 'आर्य गजट'निकालते थे। उसमेंऔर मुसलमानो के जेहादी पर्चो में एक दूसरे के प्रति नफ़रत के अंगारे भरे जाते थे। सन् 1897 में लेख राम का क़त्ल हो गया! .......।
शुद्धिकरण यही नहीं रुका। आर्य समाज की शुद्धिकरण की नीति का मकसद संख्या के बल पर एक समुदाय को दूसरे समुदाय के विरोध में खड़ा करना था। यहाँ स्पष्ट रूप से मुसलमानों की संख्या को कम करना था, उन्हें हिन्दू बनाना था, किन्ही लोगों को यह कह कर या भरोसा दिलाकर कि उनके पूर्वज हिन्दू थे तो किन्हीं को अन्य आधार बना कर या बता कर पर इन सब का मकसद सन्ख्या की राजनीती और ...... और बहुत कुछ था! इस प्रकार से यह एक बांटने वाली राजनीती का भी हिस्सा बन गया. ज्यों ज्यो शुद्धिकरण में तीव्र गति आने लगी त्यों त्यों उनमे आक्रामकता भी बढती गयी। यह सब हम उस समय के पत्र पत्रिकाओं और अन्य स्रोतों से जान सकते है।निसे एक राष्ट्रवाद का चोगा पहनाया गया, जो विशुद्ध रूप से जातीय चरित्र का था या यो कहें कि हिन्दू जातीय राष्ट्रवाद था। इस प्रकार से अब यह आंदोलन राष्ट्रवाद के कलेवर से जाना जाने लगा।
सन् 1900 से पहले के प्रयत्न ज्यादातर मुसलमानो और ईसाईयों को हिन्दू बनाने पर केंद्रित थे पर 1900 के आस पास शुद्धि के आंदोलन में परिवर्तन आया। इस समय से हिन्दू बाह्य जातियों को शुद्धिकरण के द्वारा हिन्दु बनाने की ओर इसका रुख हुआ, जिसे 1900 के आस पास राठी लोगों के शुद्धिकरण से हम जान सकते है। सन् 1911...।..।.....

आर्य समाज का शुद्धिकरण आंदोलन और मेघ: 5,
आर्य समाज के शुद्धि आंदोलन का मोड़ 1900 के आस पास पिछड़ी या निम्न जातियों को हिन्दू धर्म में समाहित करने की ओर मुड़ गया। यह पिछली पोस्ट में बताया गया था। सन् 1911 तक मुस्लमान धर्म से हिन्दू बनाने के 147 और ईसाई धर्म से हिन्दू बनाने के 10 शुद्धि के कार्यक्रम हुए, जबकि इस समय पंजाब सूबे में ही तथाकथित अछूत कहे जाने वाले हजारों हजार लोगों को द्विज का ओहदा दिए जाने का कहते हुए शुध्दिकरण किया गया। इनमें मेघों की संख्या सर्वाधिक थी अर्थात शुद्धि के आंदोलन को मेघों ने सहर्ष स्वीकार करके अपने को एक ओर हिन्दू धर्म में स्थापित करने की कोशिश की तो दूसरी ओर सामाजिक पांय दान में ऊपर उठने की कोशिश की।
अगर उनकी संख्या देखे तो 1901-1902 में ओड जाति से 2000 से 3000 और इसी समय मुल्तान में और कश्मीर सीमांत के 30000 मेघों का शुद्धिकरण किया गया और करनाल में 30000जाटों की शुद्धि की गयी अर्थात उन्हें हिन्दू बनाया गया, जो अभी उच्च जाति में शुमार हो चुके है। आर्य समाज में मेघों को उपदेशक के रूप में समाहित किया गया। जाटोँ को शादी ब्याह आदि हेतु उच्च जातीय संस्तरण मिल गया पर मेघों को उपदेशक बना दिए जाने पर भी सामाजिक संस्तरण में ब्राह्मणों का अधिकार नहीं मिला! अर्थात न तो वे ब्राह्मणों में शुमार हो सके और न क्षत्रियों में। वे एक अलग स्वरुप में पनपते रहे। यह ध्यान देने वाली बात है कि आर्य समाज की गतिविधियों से भी पहले यह जातीय समूह धर्म विशेष में उच्च ओहदा प्राप्ति हेतु प्रयत्न रत रहा... और इस समय भी प्रतिबद्ध रहा पर एक अलग समुह के अलावा उन्हें कुछ नहीं मिला। चूँकि जाट एक जाति पहले से हिन्दू धर्म में विद्यमान थी, अतः जाट तो उसमे शुमार हो गए पर मेघ फिर भी वहीँ के वहीँ रह गए। ये उपदेशक भगत बन कर उभरने लगे।
तथ्य यह है कि आर्य समाज ने मेघों को उपदेशक बना कर एक तरह से यह जताने की कौशिश की कि वह पुराणी रूढ़िगत जाति व्यवस्था नहीं मानते। हिन्दू धर्म के जो धार्मिक संस्कार थे, उन्हें भी नए सिरे से अंजाम दिया जाने लगा और जो ये नए उपदेशक आये थे, उनके हाथों में संस्कारों की सरलीकृत पुस्तके पकड़ा दी गयी। उस समय शुद्धि सभा के अध्यक्ष रामभज दत्त थे, उनकी लिखी पुस्तक संस्कारों का नया निरूपण था, जो इन शुद्धिकृत मेघों की अपनी पुश्तैनी रिसमो और संस्कारों पर भारी पड़ने लड़ी, धीरे धीरे वे इन नए संस्कारों को अंगीकार कर गए। सिर्फ पंजाब या कश्मीर या मुल्तान आदि का ही यह हाल नहीं था, बल्कि मारवाड़ और मेरवाड़ा तक उसकी पैठ हो गयी।
ये उपदेशक नव कल्पित संस्कारों की महिमा और बखान में मशगूल होकर रह गए और संस्कार .. संस्कार.. शुद्धि शुद्धि करते रह गए। मेरवाड़ा में मेघवालो के संत पुरुष गोकुल दास ने अपनी पुस्तक में उन संस्कारों का महिमा मंडन किया और मेघों को उन संस्कारों को व्यवहारने वाले जातीय समूह के रूप में पेश किया, हालाँकि हकीकत में ऐसा था नहीं, उन्होंने यह भी लिखा कि ये संस्कार आर्य समाज के अनुसार है। तात्पर्य यह है कि जो शुद्धि के द्वारा हिन्दू धर्म में आये थे और जो नहीं आये थे, उनको इन लोगों द्वारा आर्य समाजी संस्कार विधिया दी गयी।
एक स्रोत का मेघों के प्रति भेदभाव के बारे मानना है कि यह भेदभाव 19वीं शताब्दी के अंत में शुरू हुआ, यह वही अवधी थी जब मेघों को शुद्धिकरणक के द्वारा हिन्दू धर्म में प्रविष्ट कराया जा रहा था।
Regarding escalated discrimination against Meghs of Jammu, there is one particular incident that in worthy of mention here. An active Arya Samaj leader was killed in 1923 in a village near Akhnoor town ( Jammu District) for his attempt to uplift Meghs. The culprits wanted to prevent the establishment of pathshala (school) for local Meghs, for the inauguration of which Arya Samaj leader had visited the village ( Sharma, 1996). This episode suggest that, by the 1920s the discrimination against Meghs had taken a fierce form in Jammu, also, there is a possibility that such caste discrimination was specific to this era ( late nineteenth to early twentieth century ). It is known that Megh -related notion of pollution did not exist generally in the hills of this region before the early twentieth century (Gupta, 1981, 105). Probably those hierarchical Hindu codes had not reached these hills then.
स्पष्ट तथ्य यह है कि जब वे हिन्दू घेरे में आ गए तो जातीय उंच नीच की श्रेणी बद्धता में बन्ध गए और हिन्दू धर्म के हिसाब से वह जरुरी भी था। पहले एक उन्मुक्त समाज से यह एक बंधा हुआ समाज बन गया. जातिगत हिसाब से पहले जो भेदभाव नहीं होता था, वह भी होने लग गया। क्योंकि हिन्दू व्यवस्था में इनको कहीं न कँहीँ खपाना था, और जिस पांव दान पर ये खपने लगे वह एक जातीय संस्तरण की श्रेणी में ही हो सकता था और उस जाति के प्रति जिस तरह के पूर्वाग्रह हिन्दू धर्म की मानसिकता में होते है, वे उनके प्रति उभरने लगे और बनने लगे. अर्थात शुद्धि के बाद वे हिन्दू पूर्वाग्रहों और भेदभाव के शिकार भी हुए।

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आर्य समाज द्वारा मेघों के शुद्धिकरण पर census-1911की यह टिपण्णी कितनी प्रासंगित हो सकती है- The Meghs thus recieved the services of an Upadeshak, often a Brahman, for performing their rituals. At the same time as the Arya Samaj was questioning the rules of hierarchy through these 'purification', it was freeing itself from the tutelage of the orthodox pandits by simplifying the ritual as is explained by Ram Bhaj Datt, who had become the President of Suddhi sabha:
"The ceremony is everywhere the same. In all cases the person to be reclaimed has to keep Brat(fast) before the ceremony ( a part of which consists patting on the sacred thread). In some cases where the fall was due to passion , the number of Brats is increased by the persons who are perform the ceremony. They very act of their being raised in social status makes them feel a curious sense of responsibility. They feel that they should live and behave better and that they should act as Dvijas. It has thus, in the majority of cases, a very wholesome effect on their moral, social, religious and spiritual being. As to treatment, the Arya Samaj treat the elevated on terms of equality.." ( See, Punjab census Report 1911:110)
इस प्रकार से यह शुद्धिकरण का रूप उन लोगों के सामने एक आदर्श के रूप में आर्य समाज के द्वारा रखा गया, विशेषकर तथाकथित अछूत जातियों के सामने यह आदर्श था, जिसे अपनाकर वे अपना सामाजिक ओहदा ऊँचा करने हेतु तत्पर हुए। आर्य समाज द्वारा जाति व्यवस्था पर भी बड़ा सावधानीपूर्वक किया जाने वाला विवेचन इन्हें एक आदर्श समाज का रूप नजर आता था। अतः अधिकाधिक मेघ लोग इस अवधी में आर्य समाजी बने। सारांशत:
'This is an idealized description insofar as Suddhi tended to be reserved for less impure castes- even among the Untouchable- and particularly insofar as the majority of the Arya Samajists had reservations about challenging the castw system in favor of which an active minority was mitigating. The ideal type of social relations that this avant -garde devised however has the characteristic of integrating the sectarian and nationalist dimensions of the Arya Samaj within the logic of 'strategic syncretism.'

आर्य समाज का शुद्धिकरण आंदोलन और मेघ: 7
स्यालकोट के मेघों से शुरू हुआ शिक्षा की शर्त का दौर-
. यहप्रश्न बार बार दिमाग में आता है कि मेघों ने आर्य समाज की शुद्धि को क्यों अपनाया? कई तरह के जबाब लोगों द्वारा दिए जाते रहे है। मैं उन सब पर नहीं जाना चाहता। वे कारण हो भी सकते है और नहीं भी। यह तो उस समय की परिस्थियों के विश्लेषण से हम जान सकते है। जहाँ तक हिन्दू संस्कारों और रीति रिवाजों की बात है, तो यह आर्य समाज के साहित्य में दर्शाया गया है कि बहुधा मेघों के रिवाज कई मामलों में अच्छे थे। हिन्दू रिवाजों और संस्कारों से मिलते थे। कई मामलों में उनका क्रिया विधान राजपूतों के संस्कारों से और कई मामलों में एनी द्विज जातीय संस्कारों से मेल खाते थे, तो फिर उनको शुद्धि के द्वारा संस्कारित करने का क्या औचित्य था? हालाँकि उनके संस्कार लिपिबद्ध नहीं थे पर परंपरागत रूप से वे उनके लिए सहज और स्वीकार्य रूप में निरंतर चले आ रहे थे। ऐसे में उनको संस्कारों का झांसा देकर उन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद में नहीं लिया जा सकता था।
जहाँ तक जातीय संस्तरण की बात थी। यह समाज अपने आप में स्वायतशायि माना जाता था । फिर भी वह अलग थलग पड़ा हुआ था। हिन्दू समाज में अच्छेप था। उसके लिए यह बात सुभीती थी कि इस माध्यम से वह प्रगति कर सकता है। जब पहली बार मेघों को शुद्धिकरण के द्वारा द्विज/हिन्दू बनाने का लोभ दिया गया या यह लोभ उनमें आया तो उन्होंने इसे सामूहिक रूप से अस्वीकार कर दिया। उधर हिन्दू और मुसलमानो के बीच भी आपसी विद्वेष बढ़ रहा था। ऐसे में मेघों को एक राष्ट्र की आवश्यकता अनुभूत होना जायज था। यह भी एक वजह थी कि वे धीरे धीरे इस पर विचार करने लगे।
जब स्यालकोट के मेघों के सामने शुद्धिकरण द्वारा द्विजत्व प्राप्त करने या हिन्दू बनने का प्रस्ताव आर्य समाजियों द्वारा दिया गया तो उन्होंने कई शर्ते रखी। उनमे जो सबसे महत्वपूर्ण शर्त थी, वह थी, उनके लिए शिक्षा का माकूल प्रबंध करना। अगर आर्य समाज मेघों के लिए पाठशालाएं खोल दे तो मेघ लोग शुद्धि द्वारा हिन्दू धर्म को अंगीकृत कर लेंगे। मेरे हिसाब से उनकी यह शर्त महत्वपूर्ण तो थी ही साथ ही उनकी भविष्य की पीढ़ियों के उद्धार से भी जुडी थी। आर्य समाज इस पर राजी हो गया और मेघों के लिए स्कूलें खोलने के जतन किये जाने लगे। आर्य समाज को भी इस में अन्य पुरातनपंथी हिंदुओं का कोप भाजन बनना पड़ा। यह मैंने पहले भी बताया है कि आर्य समाजियों और पुरतांपंथियों के बीच अपने तरह की एक अलग ही रस्सा कस्सी थी। कई जगह इस बात को लेकर झगड़े भी हुए और कई जगहों पर कुछ लोगों को जान भी गंवानी पड़ी।
मेघों के लिए अंततः स्यालकोट में स्कूल खोल दी गयी और देश के अन्य भागों में भी इस्कूलों का जाल बिछाने का काम आर्य समाज ने अपने हाथ में लिया। इस पहले दौर में स्यालकोट और पंजाब में स्कूलें खोली गयी , जहाँ मेघ अन्य जातीय छात्रों के साथ शिक्षा ग्रहण कर सकते थे। मारवाड़ के जोधपुर में भी आर्य समाज का यह कार्य देर सवेर शुरू हुआ। पुराने समय में द्विज के अलावा दूसरा स्कूल का दरवाजा नहीं देखता था, बनिए लोग हिसाब किताब तक की पढ़ाई करके अपना व्यवसाय संभालते थे। मेघ लोग उन पोसालों के पास से भी नहीं गुजर सकते थे।। जब आर्य समाज ने यह पहल शुरू की तो मेघों में शुद्धिकरण का चस्का भी लगा।। मेरे ताऊ जी पूना रामजी और अन्य कुछ बालकों ले उस शर्त का फायदा भी उठाया। उन्हें अक्षर ज्ञान जरूर मिला। प्रायः सभी जगह इसका ठीक ठाक रेसपोंस था। उधर मेघों ने शुद्धिकरण का समर्थन भी करना शुरू कर दिया.... कई क्षेत्रों में यह हुआ और होता रहा।
साफ बात यह है कि मेघों के शुद्धिकरण के पीछे मेघों की कई भावनाओं में शिक्षा एक महत्वपूर्ण भाग था। वे लोग कितने ही अनपढ़ या निरीह बेजुबान लोग रहे हो पर शिक्षा की शर्त पर ही वे आर्य समाज में गए। बाद में यह क्रेज और शर्त ख़त्म प्रायः हो गयी। उसके भी कई कारन थे। आर्य समाज ने भी इन लोगों के हाथों में रामायण, पुराण और महाभारत आदि थमा दी। जिसे वे सुबह शाम स्नान कर पूजा पाठ के वक्त नियमित वाचन करने लगे। ये लोग समजोद्धार के कार्यों में भी बढ़ चढ़कर आगे आने लगे और आजादी के समय और तुरंत उसके बाद विधायिका आदि में उन्हें सदस्य भी बनाया जाने लगा। जोधपुर से सूरजमल जी ऐसे ही एक शख्स थे. जो विधायिका के पहले सदस्य बने थे।

आर्य समाज का शुद्धिकरण आंदोलन और मेघ: 8
स्यालकोट के मेघ और शिक्षा की शर्त.. हिन्दू वर्ण व्यवस्था के बाहरी वर्गों में मुसलमानों को छोड़कर एकल वर्ग के रूप में मेघ लोग सर्वाधिक थे। उनकी नफरी को हिन्दू धर्म में शुमार कराना आर्य समाज के राष्ट्रवाद का एक महत्वपूर्ण अंग बन चूका था। सिंध, पंजाब आदि इलाकों में मेघ, जाट, और ऐसी कई अन्यान्य जातियाँ धार्मिक रूप से स्वतंत्र सी थी! उनमे कुछ लोग मुस्लमान तो कुछ लोग हिन्दू होते रहे। उनके आपसी रिश्ते और शादी ब्याह भी होते रहे।परंतु राष्ट्रवाद के उदय के बाद उनमे किंचित दूरियां भी खींचने लगी। अगर मेघ मुस्लमान बन गया तो जुलाहा कहा गया और जुलाहा से हिन्दू हो गया तो वह मेघ हो गया। क्योंकि इस समय तक यह कौम अपने आप को बुनाई के धंधे से सम्प्रक्त कर चुकी थी। धर्म उनके लिए दिवार नहीं था, पर शुद्धिकरण से दुरिया बढ़ गयी। हमारे ननिहाल के आधे लोग जुलाहा बनकर सिंध पाकिस्तान में रह गए तो कुछ हमारे परिवार जैसे मेघ बनकर भारत में आ गए। अब उनका आपस में मिलना भी दूभर हो गया। बात स्यालकोट की हो रही थी, तो उस समय स्यालकोट मे मेघों की सर्वाधिक आबादी थी, उन्हें हिन्दू घेरे में लेने के लिए आर्य समाज के प्रयत्न शुरू से ही होते रहे।इन प्रयासों पर एक स्रोत में जो टिपण्णी की गयी है, उसे मैं यहाँ देना चाहूँगा, ताकि अन्य सम्बन्ध कारकों को आप स्वयं जान सके और यह जान सके कि इन शुद्धि कार्यक्रमों में मेघ लोग अन्य जातियों की अपेक्षा ज्यादा थे। इसके कई कारण रहे होंगे, परंतु स्पष्तः हिन्दू धर्म में समाहित होना और उनमे जातीय संस्तरण में ऊपर का पांव दान प्राप्त करने की ललक को नाकारा नहीं जा सकता है।
"Another untouchable caste known as Megh in district Sialkot consituted nearly one and quarter lakh of Populaion in 1911. This increased three-fold by 1921. Though megh observed hindu rituals, yet they were considered untouchables. Lala Ganga Ram , a lawyer purified a large number of Meghs on 23 March 1922. The Meghs were given name of Arya Bhagat after their Shuddhi. A sabha known as "Megh Uddhar Sabha" was founded in 1922, which later set up anexclusive locality of the Meghs. During 1901-1910, around 60000 to 70000 thousand (sixty to seventy thousands) untouchables underwent Shuddhi. Some of the prominent untouchable castes were Rohtiya with 3000 to 4000 suddhis. Ramdasiya about 200, Od with 2000 to 3000. Megh numbering 30000(thirty thousand)etc. These Suddhies were solemnized in places like Kangra, Dalhousie, Hoshiarpur, and Ambala districts. In 1923 nearly 8000 chamars were purified at Sialkot through Dayanand Dalitoddhar Mandal. Pandit Vishnu Dutt Vakil, performed Shuddhi in 5300 Balmikis in 1930 at Lahore. In 1931 another 1000 Balmikis become dwijasafter their Shuddhi at Lahore. In 1923 Pt. Vishnu Dutt purified another 1530 Balmikis. Besides the above mentioned numbers, it is noted that All India Suddhi Mahasabha purified 183242 persons within a period of 8 years."
ये आंकड़े तो प्रकाशित आंकड़े है , इनके अलावा और कई जगहों पर मेघों ने देखा देखी या नाते रिस्तेदारी के हिसाब से भी शुद्धिकरण अपनाया और हिन्दू धर्म के जातिवादी प्राचीर में कैद हो गए। कैद होना इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि न तो वे ब्राह्मण बन सके और न राजपूत आदि द्विज। इसी समय डॉ आंबेडकर भारतीय राजनीति के क्षितिज पर चमकने लगे। इसके बाद इस में एक नया मोड़ आया। कई संस्थाये इस कार्य में संलग्न हुई और इसी समय में लाहौर में भूमानंद द्वारा 1922 में जात-पात तोड़क मंडल की भी स्थापना की और इसी समय स्यालकोट में मेघ उद्धार सभा और लाहौर में मेघ सभा का गठन हुआ। इन संस्थाओं ने और ऐसी कतिपय अन्य संस्थाओं ने भारत के विभिन्न भागों में शुद्धिकरण को अंजाम दिया। मेघ उद्धार सभा स्यालकोट और मेघ सभा लाहौर का प्रभाव और कार्यक्षेत्र पंजाब के साथ साथ वर्त्तमान राजस्थान तक था। इन संस्थाओं ने निश्चित रूप से मेघों को एक सम्बल दिया पर........

आर्य समाज का शुद्धि आंदोलन और मेघ: 9

आर्य समाज ने उन्नीसवी शताब्दी के अंतिम दशक में जम्मू कश्मीर में अपनी गतिविधिया और पैठ बढ़ाना प्रारम्भ किया।। सन् 1891 में आर्य समाज ने जम्मू में अपनी शाखा की स्थापना की। उसके बाद आर्य समाज ने मीरपुर, कोटली, भेम्बर, राजौरी, नावशहर, रियासी, रामवन, भद्रवाह और किस्तवार में शाखाएं खोली। अगर आंकड़े देखे जाय तो 1911 तक जम्मू व मीरपुर में 1047 लोगों का शुद्धिकरण किया गया अर्थार्त उन्हें धर्मान्तरित कर आर्य यानि हिन्दू धर्म में लिया गया। सेन्सस ऑफ़ इंडिया की 1911 की रिपोर्ट के अनुसार इनमें 429 लोग मेघ थे।
सन् 1931 तक जम्मू कश्मीर में इस प्रकार शुद्धि के द्वारा 93944 लोगों को आर्य यानि हिन्दू बनाया गया, जिनमे 93337 लोग जम्मू प्रोविंस के थे। (सेन्सस-1931, पृष्ठ 290-291) । आर्य समाज द्वारा यहाँ जम्मू और कठुआ जिलों में ज्यादा जोर रहा। इसका एक प्रमुख कारण तो यह था कि यह क्षेत्र पंजाब से सट्टा हुआ था, जिसके कारन यहाँ के लोग आर्य समाज की गतिविधियों को जानते थे। ये लोग स्यालकोट में आर्य समाज की गतिविधियों से वाकिफ थे और उनसे पूर्णतयाः प्रभावित थे। दूसरा प्रमुख कारण यह था कि यहाँ दलितों की सघन जनसँख्या निवास करती थी, जिसमें मेघ लोग सर्वाधिक थे। स्यालकोट में मेघों ने सामूहिक रूप से शुद्धि को स्वीकार किया था, जो इनके सामने एक मार्ग दर्शक की तरह था। अतः यहाँ भी सर्वाधिक रूप से मेघों ने आर्य समाज के शुद्धि आंदोलन में भाग लिया और शुद्धि के द्वारा आर्य भगत बन गए।
कठुआ में आर्य समाज की गतिविधियों को राम भज दत्त ने ही अंजाम दिया। उसने वहां शुद्धि यज्ञ कर हजारों मेघों और अन्य लोगों को आर्य बनाया । जहा 1931 तक यह संख्या 7930 से 16271 तक पहुँच गयी। इन जगहों के अलावा भी जगह जगह शुद्धिकरण के कार्यक्रम आयोजित होते रहे और मेघ लोग मेघ से आर्य भगत होते रहे। शिक्षा की सुविधा की जो शर्त स्यालकोट में थी, उसका पालन यहाँ पर भी किया गया। आर्य समाज ने इनके लिए जम्मू जिले में रेहड़ी मोहला, आर.एस. पूरा आदि में प्राइमरी स्कूलें खोली गयी। कठुआ जिले में गढ़ अँड्रॉ Garh Andral और कल कुर कठुआ में पाठ शालाएं खोली गयी। अगर देखा जाय तो सन् 1921 से 1930 की समयावधि इस क्षेत्र में धार्मिक चेतना की जाग्रति की अवधि थी, जिसमें हिन्दू बाह्य लोग आर्य बनकर हिन्दू धर्म में अपनी एक पहचान बनाने का जतन पूरे मनोवेग से कर रहे थे। इस समय कई संगठन और पत्र-पत्रिकाएं भी निकालनी शुरू हुई। पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से आर्य समाज अपनी विचारधारा और जनमत दोनों को अपनी ओर करने में जुटा हुआ था। जिसके परिणाम भी उसे मिल रहे थे। इस क्षेत्र में सिंह सभा का संगठन और रणबीर पत्र का प्रकाशन आदि इसमें दृष्टव्य है।
जात-पात तोड़क मंडल, जिसकी स्थापना लाहौर में हुई थी, उसकी गतिविधियाँ भी इस क्षेत्र में बढ़ी। इस दरम्यान मेघों ने और अन्यान्य अन्य अन्य अछूत कही जाने वाली जातियों ने अपने साथ हो रहे भेदभाव के विरोध में महाराजा के सामने भी पक्ष रखा। महाराजा हरी सिंह ने 1931 में अपने राज्य में अछूतों पर लादी गयी पाबंदियों या निर्योग्यताओं को हटाने का एलान किया। 1932 में इन लोगों ने महाराजा को पुनः ज्ञापन भी दिया। महाराजा हरिसिंह ने अपने राज्य में सभी मंदिरों, कुँओं और सार्वजनिक शिक्षा स्थानो को सभी के लिए खोलने का एलान कर दिया। इसे राज्य के असाधारण गजट में प्रकाशित भी किया।
जम्मू कश्मीर में इस प्रकार की गतिविधियाँ होती रही और मेघ लोगों की शुध्दि दर शुद्धि होती रही अर्थात वे आर्य भगत बनते रहे। महात्मा मुंशीराम जो बाद में श्रद्धानंद जी के नाम से प्रसिद्द हुए उनके द्वारा भी इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य अंजाम दिए गए। वस्तुतः श्रद्धानंद जी के प्रयत्नों से ही इन कार्यों में स्फूर्ति आई और अछूतों को आर्य किंवा हिन्दू बनाने की मुहीम हकीकत में बदलती गयी। उस समय बहुत सी संस्थाये और संगठन खड़े हुए यानि बने और इस शुद्धि के कार्यमे लग गए। इनमे जात-पात तोड़क मंडल- लाहौर, मेघ उद्धार सभा- स्यालकोट, दयानंद दलितोद्धार सभा-अमृतसर, अछूतोद्धार सभा व दलितोद्धार सभा- दीनानगर, मेघ सभा-लाहौर, अस्परस्यता निवारण संघ, आल इंडिया महाशय महासभा, अछूतोद्धार सभा, आदि प्रमुख थी। इन संस्थाओं ने पन्जाब और उसके आस पास, जम्मू और उसके आस पास के जिलों में शुद्धि या धर्मान्तरण के विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किये और लोगों को आर्य बनाया अर्थार्त उन्हें हिन्दू बनाया। मेघ से आर्य भगत या मेघ भगत हो गए, डुमना से महाशय हो गए, भंगी से वाल्मीकि हो गए आदि आदि।
प्रश्न यह पैदा होता है की क्या मेघो को आर्य भगत बना दिए जाने के बाद वे द्विज बन गए या उनकी निर्योग्यताएं ख़त्म हो गयी?

आर्य समाज का शुद्धि आंदोलन और मेघ : 10
आर्य समाज के शुद्धि कार्यक्रमों के द्वारा मेघों को द्विज बना दिए जाने के बाद भी क्या उनके सामाजिक और आर्थिक औहदे में कोई परिवर्तन आया? अगर इसके बाद की हालातों का आंकलन करे तो हमें निराशा होती है। इसका परिणाम कोई अच्छा नहीं निकला। जो लोग नवोदित धर्म जागरण से शुद्दीकृत होकर आर्य या हिन्दू बने थे, वे गरीब, निस्सहाय, अनपढ़ और हिन्दू मुसलिम बाह्य को थे। एक धर्म विशेष में अपनी पहचान के लिए कायल हुए इन लोगों को मालूम नहीं था कि यह भेदभाव बाद में भी बद्दस्तूर जारी रहेगा। वे आर्य समाज में तो आ गए, पर आगे की रणनीति उनके हाथ में नहीं थी। ये लोग खेतिहर मजदूर के रूप में जीवनयापन करने वाले थे। उसी में रमें रहे। इन भगतों या मेघों की सबसे बड़ी कमजोरी थी कि ये जगह जगह बिखरे हुए थे। खेतिहर कामों से जुड़े होने और हर दूसरे तीसरे साल अकाल पड़ने से ये जीवन यापन जे लिए इधर से उधर भटकते भी रहे। उन सबके बीच कोई आदान प्रदान भी नहीं था। अपने अपने प्रदेशों या क्षेत्रों में विभिन्न व्यवसायों में संलग्न हो गए। उस समय संवहन के साधन भी सीमित थे। ऐसे बहुत से कारण और परिस्थियां थी, जिसजे कारन उनका सामाजिक और आर्थिक उन्नयन अपेक्षानुरूप नहीं हो पाया।
परंतु यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगई कि इन शुद्धि कार्यक्रमो से उन्हें वेद् और वैदिक साहित्य पढने का अधिकार और पवित्र धागा धारण करने का अधिकार मात्र ही मिला। उन्हें द्विजत्व नहीं मिला। एक ओर सनातनी हिंदुओं ने उनका विरोध किया तो दूसरी ओर मुसलमानों ने भी विरोध किया। सामाजिक संस्तरण में गरिमामय स्थान प्राप्ति का उनका यह प्रयत्न इस हेतु कारगर नहीं बन पाया। उनकी सामाजिक स्थिति में कोई बदलाहट नहीं हुई। वे एक नए चक्रव्यूह के भाग बन गए। कुछ लोगों में सामाजिक गतिशीलता अवश्य आई, पर समूह के रूप में वह आशाजनक नहीं कही जा सकती थी। यह भी हुआ कि वे अपना पुश्तैनी धंधा छोड़कर नए नए धंधो को अपनाने की ओर उन्मुख हुए और नए धंधों में भी प्रविष्ट हुए। यह ट्रेंड न केवल मेघों में बल्कि अन्य शुधिकृत लोगों में भी आया। जिन लोगों ने अच्छे या लाभकारी व्यवसाय अपनाये थे वे प्रगति कर गए। वे शिक्षा में भी आगे बढे तो कुछ राजनीती में भी आगे बढे। उनका धार्मिक उत्थान आर्य समाज की संकल्पना के इर्द गिर्द घूमता रहा और ये उसके उपदेशक या पैरोकार बन कर रह गए।उन्हें संवैधानिक संरक्षण डॉ. आंबेडकर के व्यापक दृष्टिकोण से ही मिला।उस बाबत जितना कहा जाय उतना ही कम है।
आंकड़े बताते है कि 1903 में स्यालकोट में 50000 मेघों ने आर्य समाज के शुद्धि कर्मकांड से अपने को शुद्ध कर हिन्दू धर्म में बतौर आर्य भगत सामिल किया। मैं आर्य समाज के शुद्धि कार्यक्रमों के सनातनी हिंदुओं के विरोध और मुसलमानों के विरोध पर अपनी टिपण्णी लिखू, उससे पहले यह बता देना आवश्यक समझता हूँ कि ये शुद्धिकरण आंदोलन इन कौमों के लोगों के द्वारा ही ज्यादा प्रचारित करनें के कारण फले फुले अन्यथा सनातनी हिन्दू तो बुरी तरह से इनके पीछे लग गए और एक नयी तरह की दुश्मनी या द्वेष का सूत्रपात हुआ। यह ध्यान देने योग्य है कि लाला बद्रीदास एयर लाल देवराज ने राहतिया जाति के लोगों को गुरुदासपुर और जालंधर में शुद्धि द्वारा आर्य धर्म में प्रविष्ट कराया था। महात्मा मुंशी राम 40 राहतिया को अपने साथ लाहौर ले गए और उन्को आर्य धर्म अपनाया। उसी समय रोपड़ और लायलपुर में भी शुद्धि के कार्यक्रम हुए। महाशय रौनक राम और महाशय गोकुल राम ने डुमना लोगों के शुद्धि हेति गंभीर प्रयत्न किये, जिसके फलस्वरूप डुमना लोग शुध्दि के द्वारा आर्य धर्म में आये और नया नाम महाशय स्वीकार किया।
ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इनका शुद्धिकरण भी राम भज दत्त द्वारा ही यज्ञ के द्वारा किया गया और उसके द्वारा ही इन्हें महाशय नाम नवाज गया। राम भसज दत्त ने ही शुद्धि के बाद महाशय कौमी सुधार सभा का गठन किया।एकं सूत्र का कहना है की 1903 में भी स्यालकोट में 50000 मेघ शुद्धि द्वारा आर्य भगत बने। और भी बहुत से दृष्टान्त है।यहाँ यह भी प्रश्न खड़ा होता है कि अगर जात पात तोड़ना ही इसका लक्ष्य था तो विभिन्न जातियों से शुद्ध हुए लोगों को विभिन्न तरश के नाम क्यों नवाजे जा रहे थे। मसलन मेघों को आर्य भगत, डुमना को महाशय आदि आदि.

आर्य समाज का शुद्धि आंदोलन और मेघ : 11
हरिद्वार से चंद्रावल व्रत की ओर-
दलित वर्ग या अछूत कही जाने वाली विभिन्न जातियों का शुद्धि के द्वारा धर्मान्तरण किये जाने के विभिन्न विरोधों के उत्तर और प्रत्युतर हर तरह से और हर स्तर पर दिए जा रहे थे। यह आर्य समाज की हिस्ट्री से मालूम होता है। साथ ही यह भी मालूम होता है की इन शुद्धि यज्ञों या कर्मकांडों का उन वर्गों द्वारा भी विरोध किया जाता रहा, जिन वर्गों से ये लोग शुध्दि यज्ञों में सरीक होते थे। आर्य समाज ने इसे अपने स्तर पर निपटाया वह हमारे लिए इतना महत्त्व पूर्ण नहीं है। हालाँकि व्यापक दृष्टिकोण हेतु उसे जानना जरुरी है, पर अभी मेघों की बात हो रही है तो उनके शुद्धि कार्यक्रमो तक ही हमें सीमित रहना है।
ऐतिहासिक रूप से मेघ लोग आध्यात्म प्रवर रहे है। धार्मिक रूप से उनकी अपनी एक अलग ही पहचान थी। उनकी धार्मिक मान्यताओ को बड़ा धर्म या महा धर्म कहा जाता था। तकरीबन 16वीं से 19वीं शताब्दी के बीच ये अपने धर्म को महाधर्म से पुकारते रहे। उनकी वाणियों और भजनों में उसकी महिमा गायी जाती रही। अगर ऐतिहासिक जड़ों को टटोले तो वह सिद्धो और नाथों के माध्यम से उनमे प्रवाहित होती रही। इसकी महिमा ये लोग अपनी सभा पंचायत और उत्सवों में करते रहे। उनके उत्सवों में चंद्रावल ब्रत का विशेष महत्त्व होता था! इस अवसर पर ये भर्तहरि, कबीर, बाबा रामदेव, गोरखनाथ और अन्य संतों या पीरो के भजनों का संगायन करते थे।जिस समय आर्य समाज ने शुध्दि को अंजाम देना प्रारम्भ किया उस समय भी हर एक को चंद्रावल व्रत करने और दान पूण्य करने की बड़ी महिमा थी । आर्य समाज ने इसे कुंजी के रूप में पकड़ लिया।
आर्य समाज ने शुद्धि की जो प्रक्रिया या कर्मकांड अपनाया था। उसमे यज्ञ और वेद मंत्रोच्चार होता था। पंडित के द्वारा यज्ञ करवाना, गायत्री मन्त्र उच्चार और जनेऊ का धागा पहनाना तथा साथ ही हरिद्वार जाना था। इन कर्म कांडों द्वारा उन्हें द्विज बना दिए जाने पर भी उन्हें सामाजिक स्तर पर द्विजत्व की मान्यता नहीं मिल रही थी। आर्य समाज ने उनमे यह आशा पैदा की कि इस प्रकार वैदिक धर्म की पालना करते हुए एक न एक दिन वे द्विजत्व प्राप्त कर ही लेंगे। साथ ही आर्य समाजी रूढ़िग्रस्त जात पात का मुखरित विरोध भी करते थे और कर्म आधारित जाति की वकालत करते थे।...... मेघों ने देखा की यज्ञ करने, जनेऊ धारण करने से भी हिन्दू समाज में उनकी स्थिति निम्न ही मानी जा रही है तो उनका जोश ठंडा पड गया। साथ ही और भी कई कारक रहे। जो धार्मिक संत या साधू मार्गी थे। जो संध्या और भजन कीर्तन अपने परंपरागत तरीके से करते थे, उन्हें भी ये कर्मकांड उपयुक्त नहीं लग रहे थे, हालाँकि बहुत से लोग इससे जुड़ चुके थे। हरिद्वार जाने की एक नयी परंपरा भी उन्हें रास नहीं आ रही थी। फिर भी हरिद्वार जाने वाले और जाकर आने वाले के इन आर्य समाजियों द्वारा बड़ी भारी महिमा गयी जाती थी। यह एक तरह का मनोवैज्ञानिक प्रभाव था। कई लोग सिर्फ इसलिए नहीं जा सकते थे कि उनके पास न तो जाने के साधन थे उर न धन आदि।...... आर्य समाज ने इस पर गहन मंथन किया। सनातनी हिंदुओं के विरोध और मेघों के अपने रीति रिवाजों को देखते हुए शुद्धिकरण के कर्मकांड को नया रूप दिया गया। उन्होंने इसे मेघों की परंपरा के अनुकूल बनाने हेतु इस में जो कुछ परिवर्तन किया उसमें हरिद्वार जाने की बाध्यता या अनिवार्यता तो खत्म कर दिया और उनमे जो चंद्रावल व्रत का विधान था उसे कुछ रदो बदल के साथ स्वीकार कर लिया। इस प्रकार से आर्य समाज ने उस समय के मेघों को उसी में बने रहने या उसे अंगीकार करने की मनोवैज्ञानिक भूमिका बना दी।
यह ध्यातव्य है कि मेघ लोग परंपरागत रूप से चंद्रावल व्रत करते आये थे और उसे एक बड़े उत्सव की तरह सामाजिक स्तर पर सम्पादित करते थे। यह प्रायः शुक्ल पक्ष की द्वितीया के दिन नए चंद्रमा के साथ ही होता था। कभी कभी इसे षष्ठी, अष्टमी और पूर्णिमा आदि के दिन भी सम्पादित किया जाता था। इसका क्रिया विधान उनके आध्यात्म गुरु के द्वारा होता था। उजोवना और व्रत इसमे महत्वपूर्ण होता था। चंद्रावल व्रतधारी मेघ संकल्प के साथ निश्चित व्रत रखता था और वे पूरा होने पर चंद्रावल का ब्रत उजोया जाता था। व्रतधारी निराहारी रहता था और व्रत समाप्ति चंद्रावल के उत्सव के साथ ही पूरी होती थी। आर्य समाज ने इसे अपने शुद्धि यज्ञ में शामिल कर मेघों को आकर्षित किया। ये लोग यह भी प्रचारित करने लगे कि आपके व्रत के साथ वेदों के मंत्रोच्चार और यज्ञ आदि से अधिक पूण्य प्राप्ति आदि होगी। उसी समय ब्रत उत्सवों की महिमा की पुस्तकें भी प्रचुर मात्र में छपने और प्रचारित होने लगी।
आर्य शुद्धि यज्ञ में अब हरिद्वार की अनिवार्यता ख़त्म कर दी गयी और चंद्रावल ब्रत को समाहित कर लिया गया। जो शुद्धि के द्वारा आर्य बनना चाहता था उसे 15 दिन तक ब्रत करना अनिवार्य कर दिया। इस व्रत में वह सिर्फ दूध ही ग्रहण कर सकता था। फिर 15 दिन पुरे होने पर वाही वैदिक यज्ञ मंत्रोच्चार, यानि गायत्री और धागा पहनाया जाता.....धीरे धीरे इसे भी 3 तिन का कर दिया गया.

आर्य समाज की शुद्धी और मेघ: 12
आर्य समाज जिस तरह की समाज व्यवस्था का सपना देख रहा था, वह उनका आदर्श समाज था और इस आदर्श समाज की रचना में स्वामी दयानंद ने जिन ग्रंथों को आर्य समाज द्वारा प्रमाणिकता प्रदान की उसमें मनु स्मृति भी एक थी। यह अलहदा बात है कि फिर भी सनातनी हिन्दू इसका जी जान से विरोध कर रहे थे, हालाँकि बाद में उनमें मौन समझोता हो गया और आज आर्य समाज की जो हालात है, वह उसके इसी मौन समझौते का परिणाम है, जिसमें सनातनी हावी हो गए। परंतु उस अवधी में इनके सम्बन्ध एक तरह से द्वेषपूर्ण ही थे । एक सुदीर्घ परंपरा के विरुद्ध आवाज उठाना साहस का ही कार्य था। आर्य समाजी अब दबे कुचले अस्पर्शय जातियों में जोश भरने लगा और उनको एक जाति के दायरे में बराबरी का हक़ दिलाने हेतु प्रतिबद्ध था। उनका रास्ता जैसा भी था, उनमें प्रतिबद्धता तो थी ही।
जिन लोगों को शुद्धि के द्वारा आर्य बनाया जा रहा था, वे कतिपय मामलों में सशंकित थे और कई मामलों मेंउनकी हिचक को आर्य समाज की पत्र पत्रिकाओं और पुस्तकों में वर्णित भी किया है।एक दो का दृष्टान्त यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ। इक जगह आर्य समाजं के नेता राम भज दत्त डोम लोगों को आर्य धर्म समझा रहे थे। पहले तो लोग उनकी सभाओं में नहीं आते थे, तो ये लोग खुद उनके घर घर और गली मोहलेनमे जाकर उन्हें हौसला बांधते और उनमें जज़्बा पैदा करते, फिर सार्वजनिक रूप से यज्ञ कर उन्हें आर्य धर्म में प्रवेश कराते। आप देखिये कि जब इन डुमना लोगों के बीच ये गए तो कोई नहीं आये। फिर ये लोग घर घर जाकर उन्हें तैयरिं करके एक जगह लाये। उन्हें विस्वास दिलाया कि उनके नागरिक अधिकार भी उच्च जातीय लोगों के बराबर ही है और वे इसे स्वीकार करते है... आदि आदि.. ऐसा भरोसा दिलाकर राम भज दत्त इन डुमना लोगों को कुँए पर ले गए और उन में से एक को कहा कि अब तुम कुँए से पानी भरो, जैसे दूसरी उच्च जाति के लोग भरते है. वह व्यक्ति इतना साहस नहीं जुटा पाया कि वह उन्मुक्त पानी भर सके. भीड़ द्वारा उसकी हौसला अफ़जाई की गयी। उसे कहा गया कि वह बिरादरी से कुँए से पानी निकलने के लिए आज्ञा मांगे. सब लोग तुम्हें आज्ञा दे देंगे, तो तुम पानी भर लेना. उसने पहली बार आज्ञा मांगी, भीड़ ने उसे पुर जोर आज्ञा दी कि हाँ तुम पानी ले सकते हो... ईएसआई आज्ञा तीन बार ली गयी।और अंततः उसने पानी भरने का साहस जुटा लिया।। इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता था। ऐसा एक नहीं बल्कि कई मामलों में आर्य समाज द्वारा किया जाता था। फिर उसके बाद सार्वजनिक यज्ञ और यज्ञोपवीत होता। सार्वजिनक होने का भी अपना प्रभाव था.... इस प्रकार की गतिविधियाँ निश्चित रूप से सनातनी लोगों के कोपभाजन भी बनती. और कई मामलो में आर्य समाज द्वारा इन लोगों को द्विज बना दिए जाने पर भी उनको आम नागरिक अधिकार उपभोग करने नहीं देते थे तो आर्य समाजी नेता उनका अलग्नसे प्रबंध भी करते। उनके लिए अलग कुँए, पाठशालाएं आदि बनाना इसी का एक हिस्सा था। मेघ सभा या मेघ उद्धार सभा के माध्यम से भी जो उनके लिए स्कूल या प्रशिक्षण शालाएं खोली गयी वो इसी का एक हिस्सा थी।

मैंने आर्य समाज और मेघ पर पोस्ट डाली थी, उस पर और लिखा जायेगा। क्योंकि मेघों के लिए वह एक संक्रतिकारी युगान्तर था। आप लोग उसे पढ़िए. वह 1880 से 1950 तक का संक्षिप्त लेखा जोखा है। अभी तक 1925 तक का मोटा मोटा आंकलन किया है। इसके बाद का भी लिखूंगा, और आपके जो संत हुए हैं और जानकारी में आये है तो उनका भी जिक्र होगा, किस तरह से वे भी सनातनी, आर्य समाजी और महाधर्म में बंट गए। धीरे धीरे आजादी के बाद मनुवाद के प्रचारक बन गए और प्रशंसा व प्रतिष्ठा के भूखे बन कर इस कौम को मुनुवाद की तरह धकेल गए। शायद वे पोस्टें आपको अच्छी नहीं लगे!
फ़िलहाल बात यह है कि जब मेघों का आर्यकरण या वैदिकीकरण या हिन्दूकरण किया जा रहा था, तो यह बात शुध्दि वाले भलीभांति से जानते थे कि किस तरह से इन्हें हिन्दू मान्यताओं में रमाया जाय। इसको किसी धार्मिक आस्था के बल पर ही किया जा सकता था। अतः हरिद्वार में जाकर गंगा स्नान करने से शुद्धि और मुक्ति को जोर शोर से प्रसारित किया गया और उनमें आस्था का बीजारोपण किया गया। पहले पहल पंजाब से ही इसकी शुरुआत हुई। इससे पहले मेघों के लिए गंगा से ज्यादा पवित्र नदियां वे थी जो उन्हें जीवन प्रदान कर रही थी, यथा: चेनाब, सतलज, चंद्रभागा या जो भी उनकी भाषा में उनके नाम रहे हो। इस प्रकार से नदियों के प्रति उनकी आस्था को गंगा की ओर मोड़ दिया गया और हिन्दू पौराणिक साहित्य के प्रचार से उसे मजबूत किया गया। दूसरा हिन्दू धर्म में सामिल होने की ललक ने भी उनमें गंगा के प्रति आस्था को बढ़ाया। मोक्ष की परिकल्पना ,जो उनकी मान्यता से मेल खाती हुई थी, उसे भी इससे जोड़ दिया गया और अब न केवल शुद्धि के लिए बल्कि किसी की मृत्यु के बाद सूतक निवारण के लिए भी गंगा को तव्वजो दी जाने लगी। मृत्युपरांत गंगा नहाना का प्रचलन बहुत बाद में आया, पहले जब शुद्धि की धारणा उनमे बलवती हो गयी तो मृत्युपरांत गंगा स्नान को भी एक पुण्यकारी और मोक्षकारी कृत्य के लिए महिमा मंडित किया गया।
इस प्रकार 20 वीं शताब्दी में गंगा की ओर मेघों में आस्था पलने लगी। इस पर भी जगह जगह विवाद और विमर्श होते रहे और आज भी होरहे है। आर्य समाज का तो गंगा के प्रति आकंठ लगाव था ही, हिन्दू सनातन वादी यानि की वेड वादी भी इसमें पीछे नहीं रहे और उसे नए रंग रूप में वैदिक कर्म कांड से जोड़कर मजबूत किया। राजस्थान या मारवाड़ में इसकी कोई चाप उस समय नहीं दिखाई देती है। पर जब आर्य समाज की विचारधारा का इधर प्रचार हुआ तो यहाँ भी यह प्रचलन में आई। आर्य समाज के अनुसरण में मेघों के कुछ साधू संतों ने भी इसकी महिमा गाणी शुरू की। इस प्रचार का जोर उनके हिंदूवादी होने के जोश के साथ ज्यो ज्यो बढ़ाता रहा, यह आजादी के अस्स पास ज्यादा ही विमर्श का मुद्दा बना. गोकुल दास जी जैसे संतों ने प्रत्यक्ष तो पैरवी नहीं की, पर उन्होंने इसकी खूब महिमा गयी और पुष्कर स्नान से इसकी तुलना की। गंगा नहाएं या पुष्कर. इसप्रकार यह समाज में समाहित हुआ प्रचलन सब उनकी बेड़िया बन चूका है। यह ध्यान देने योग्य है की पहले इनको हरिद्वार में भी स्नान करने नहीं देते थे! जिसे गंगाराम पंडित जैसों से संपन्न करवाया गया। दक्षिणा के फेर में स्वयं गंगाराम मारवाड़ किंवा राजस्थान के कई भागो में घुमे और लोगों को कन्विंस किया। धन कि कमी होने पर उनके खुद के द्वारा व्यवस्था आदि कई चीजे थी, जिसने मेघों को इस से बांधा.......

Struggle for Emancipation from Untouchability and Meghs - अछूतपन : मुक्ति संघर्ष और मेघ

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अछूतपन : मुक्ति संघर्ष और मेघ*

जनसंख्या के आंकड़ों पर नजर डालने से मालूम होता है कि भारत के कुछ केंद्र शासित प्रदेशों सहित 12 राज्यों में मेघ समाज बसा है। इनमें जम्मू कश्मीर, राजस्थान और गुजरात में इनकी सर्वाधिक आबादी है। जैसलमेर और बाडमेर जिले में अनुसूचित जातियों की कुल आबादी की लगभग 85% आबादी मेघवाल है।

दो-एक शताब्दियाँ पहले हमारे पुरखों या बडेरों का जीवन गुलामों-सा था। यह तो शुक्र है कि हमारे समाज को 'गुलाम'के नाम से नहीं पुकारा गया। बाबा साहेब अांबेडकर के उदय के साथ मेघ समाज हर क्षेत्र में उठ खड़ा हुआ है। लेकिन इस बीच सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में जो कुछ घटित हुआ है वह शोचनीय है।

बहुसंख्यक हिन्दू अभी भी हमारे साथ दोयम दर्जे का बर्ताव क्यों करते हैं? हालाँकि इन वर्षों में मेघों ने ऐसे मुद्दों पर काबिले तारीफ एकता दिखाई और राष्ट्रीय स्तर पर अपना रोष दर्ज कराया।

विश्व इतिहास में गुलामों के नारकीय जीवन की पीड़ा को देखा जाय तो मेघ समाज पर लगी अछेप (अछूतपन) की छाप वाला उनका जीवन ठीक था - ऐसा कह सकते हैं. दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो यह 'अछूतपन'की छाप गुलामी से भी बदतर है। गुलाम समुदायों को अब तक नागरिक अधिकारों की प्राप्ति काफी हद तक हो चुकी है लेकिन अछूतपन के कलंक में दबे हुए लोग अभी भी संघर्षरत हैं। भारत के इतिहास में कोई अछूत से छूत हुआ हो इसका सबूत ढूँढना मुश्किल है। देश के आंतरिक भागों में उनके साथ भेदभाव अभी भी है. विवाह के अवसर पर वे घोड़ी पर नहीं बैठ सकते, मंदिरों के दरवाजे उनके लिए बंद हैं, हैंडपंप को ताले लगा दिये जाते हैं, खाने-पीने की अलग पंगत रखी जाती है। नौकरियों में आने और प्रगति करने के अवसरों पर एक से बुरे एक अड़ंगे लगाये जाते हैं. यानि अछूतपन का कलंक मिटा नहीं है। जो जन्म से अछूत है वह मरने तक अछूत है चाहे उसका पद या प्रतिष्ठा कुछ भी हो।

    हमारे लोगों पर आरोप रहा कि ये लोग गंदे काम करते हैं, छोटे काम करते हैं, बदसूरत देवी-देवताओं को पूजते हैं, मांवडियों को पूजते हैं, अलख थापते हैं आदि। हमारी आस्था, आराधना, बदहाली का क्रूर मजाक उड़ाया जाता है। फिर भी हमारा समाज विचलित नहीं हुआ। लेकिन इन आरोपों के लिए कौन जिम्मेदार है?
    हमारा मेघ समाज हिन्दू समाज है. लेकिन उन्होंने हमें सदियों शिक्षा से वंचित रखा, वेद-उपनिषद आदि पढ़ने से रोका। उनका ज्ञान उनके पास पड़ा रहा, इसमें हमारा क्या कसूर है। उनके ब्रह्म से हमारा अलख, उनके अद्वैत से हमारा अद्वय बड़ा रहा। हमने अपने ज्ञान और धर्म को बड़ा कहा, वेदों और उपनिषदों की जगह हम ने महाधर्म की महिमा गायी तो इसमें हमारा क्या दोष है. उन्होंने खुद हमारे लिए बुरे हालात पैदा किए और हमें ही नीच धर्म को मानने वाले कह दिया।

    गुलामी प्रथा में इस तरह की अछूतपन की दीवारें नहीं थीं। अभिजात्य वर्ग के गुण और धर्म गुलामों के सामने रहते थे। अनुकरण की मनाही नहीं थी. आजाद होने के बाद सभी नागरिक अधिकारों का निर्बाध उपयोग वे कर पाए। अछूतपन से ग्रसित समुदायों की स्थिति इसके विपरीत रही। इसके लिए कौन जिम्मेवार है? ज़रूरी है कि गुलामी की तरह अछूतपन का कलंक भी ख़त्म हो। पर कैसे?

    संविधान के अनुच्छेद 17 ने छुआछूत ख़त्म करने की घोषणा कर दी हुई है। लेकिन वह ख़त्म नहीं हुई, क्योंकि यह हिन्दू धर्म, जिसे आजकल ब्राह्मणवादी धर्म कहा जाने लगा है, से निकली है। इनके शास्त्र छुआछूत की आज्ञा देते हैं। यह धब्बा साफ-सुथरे कपडे पहनने से, ऊँचे ओहदे पर पंहुचने, मंदिरों में जाने, ऊँची से ऊँची डिग्रियां लेने, धार्मिक अनुष्ठान करने, रीति-रिवाज़ निभाने पर भी धुलने का नाम नहीं लेता. क्यों? इस पर विचार करना चाहिए। सिंध से लेकर जम्मू-कश्मीर में रहने वाले मेघ एक ही जमात के हैं। महाराजा गुलाबसिंह का उस समय सिंध-पंजाब पर अधिकार था, जम्मू-कश्मीर भी उनके अधीन था और बीकानेर पंजाब का हिस्सा था। तक़रीबन 1879 के आस-पास एक हमारे समाज के संत पुरुषकेरन वाले वाले भगता साधऔर महाराजा गुलाब सिंह के बीच लिखित समझौता हुआ और राज की मोहर से उसे पुख्ता किया गया और उसके अनुसार मेघों ने मरे जानवरों का मांस खाना छोड़ दिया। अन्य जगहों पर भी ऐसे ही परवाने लिखे गए। इससे भी उनका 'अछूतपन'नहीं गया। इसका मर्म समझना चाहिए।
श्री ताराराम द्वारा इस अवसर पर प्रकाशित पुस्तिका
आजादी से पहले कई लोग देश-देशांतर करते थे। इस देशांतर के पीछे कई कारण होते थे। अकाल की विभीषिका और सामंतों के जुल्म और अत्याचार प्रमुख कारण थे। जातिगत बेगारी और अन्याय-अत्याचार से पीड़ित मेघ लोग इधर से उधर भटकते रहे हैं। कई प्रोविंसेज में वे स्पृष्य हैं और कहीं अस्पृश्य। इसलिए कुछ लोग सुझाव देते हैं कि अछूतपन से छुटकारा पाने के लिए मेघ लोग देशांतरकर लें। लेकिन कई जगह इससे भी समस्या का समाधान नहीं हुआ.

    असली सवाल यह है कि पुरखों की जमीन पर रहते हुए, अपने इलाके में रहते हुए इस 'अछूतपन'के निर्मूलन का क्या कोई रास्ता हो सकता है? सभी लोग देशांतरण नहीं कर सकते। साफ-सफाई, टीका-तिलक, शास्त्र पठन, उनका बखान, हिन्दू धर्म के किसी पंथ से जुड़ना आदि-आदि सब किया। लेकिन जातिगत भेदभाव फिर भी रहा। यह समस्या सवर्णों की नहीं आपकी है.

    सैद्धांतिक दृष्टि से सब की आत्मा एक जैसी है किन्तु हिन्दू धर्म का व्यावहारिक स्वरूप न जाने किस वजह से इतना गन्दा है कि जो लोग गला फाडकर यह बताते हैं कि आत्मा सभी प्राणियों में एक सी है, वही दूसरों को अपवित्र और अछूत करार देते हैं. हैरानगी इस बात की है कि जो लोग हिन्दू धर्म में श्रृद्धा नहीं रखते, उन्हें ऊँची जाति के हिन्दू बराबरी की नजरों से देखते हैं। ईसाई लोग अपवित्र या अछूत नहीं हैं।

    हमें यह समझना चाहिए कि जिस धर्म के तत्व इतने ऊँचे हैं, व्यवहार में वो धर्म इतना नीचा हो, तो क्या उस धर्म में रहकर हमारा उत्थान होगा? क्या हमारी भावी पीढ़ियां इससे मुक्त होंगी? इस पर विचार ज़रूरी है।
    अछूतपन के लगे कलंक को पोंछने के लिए कई जातियों ने अपनी जाति का नाम बदलने का उपाय भी किया। नाम बदलना अच्छा है या बुरा? कौन सा नाम हो और कौन सा नहीं? इस पर वाद-प्रतिवाद होता रहा है। यह हकीकत है।

    जब हिन्दू पुनर्जागरण शुरू हुआ तो पूर्व में ब्रह्मोसमाज और पश्चिम में आर्य समाज का आन्दोलन हुआ। आर्य-समाज ने लाहौर, पंजाब, जम्मू-कश्मीर और मारवाड़ क्षेत्र में हम जैसे कई समाजों का शुद्धिकरण के द्वारा आर्यकरण कर हिन्दूकरण किया। लाहौर और स्यालकोट में आर्य समाज का पूरा जोर मेघों के शुद्धिकरण पर था। हजारों की तादाद में मेघ शुद्धिकरण के द्वारा आर्य कहला कर हिन्दू हुए।

    अछूतों का आपस में जाति भेद भी विवादपूर्ण है और ऐसे आंदोलनों से उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा। उन में रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं होता है। इन भावनाओं को कैसे मिटाया जाये। इस पर विचार करना चाहिए।

जाति का अर्थ एक अलग समूह से है। यह अलगाव ही जातियों की पहचान है और यही हिन्दू धर्म के प्राण हैं। इसलिए आपस में खान-पान आदि हो जाने पर भी भावना ख़त्म नहीं होती। इसको ख़त्म करने के लिए लोग रामस्नेही, राधास्वामी बने, या अन्यान्य साधुओं-संतों के चेले बने। इससे उनकी आध्यात्मिक प्यास चाहे मिटी हो लेकिन व्यावहारिक रूप में उनकी आपसी जातीय भावना नहीं मिटी। इसलिए अछूतों को ख़ुद एक नाम के तहत आना चाहिए, इस बात का मेघवाल समाज हमेशा समर्थन करता रहा। अगर किसी एक सर्वसम्मत नाम से उनमें एकता और सद्भावना बढे तो यह उनके लिए सुखद होगी। ऐसा मैं मानता हूँ। इस पर भी विचार होना चाहिये।
बाएँ से चौथे श्री भँवर मेघवंशी, पाँचवें श्री ताराराम - दाएँ से चौथे श्री दिलीप चंद्र मंडल, दाएँ से तीसरे श्री रामचंद्र गढ़वीर
    कई जातियों ने अपनी-अपनी जाति के नाम संस्थाएं बनायीं हैं। वे उन-उन जातियों के उत्थान के लिए काम भी करती हैं। यह सिलसिला आजादी से पहले शुरू हो गया था। मेघों के नाम से भी संस्थाएं बनीं। स्यालकोट में 'मेघ उद्धार सभा'बनी। लेकिन ऐसी संस्थाएं मेघों ने नहीं बनायीं थीं, बल्कि आर्य-समाज ने बनायी थीं। मेघ ऐसी संकल्पना में नहीं बंधे और जो सभी जातियों के सामूहिक प्रतिनिधित्व की संस्थाएं थीं, जिन में जाति विहीनता का भाव उद्बोधित होता था, उन से जुड़े, गहरे रूप से जुड़े और अपनी जातीय पहचान को खोने और सामूहिक चेतना बढ़ाने के लिए काम करने लगे। लेकिन उनकी अपनी पंचायतों का जो गणतन्त्र था वह ज्यों की त्यों बना रहा। आजादी के बाद बाबा साहेब के नाम से संगठन बनाए गए। उनमें से कई विभिन्न जातियों के सामूहिक संगठन थे जैसे हरिजन सेवक संघ, दलित उद्धार सभा, डिप्रेस्ड क्लासेस लीग, शेडूल्ड कास्ट फेडेरेशन/अपलिफ्ट यूनियन आदि।

    ‘आदि धर्म’ आन्दोलन और अभी के ‘मूलनिवासीआन्दोलन में बहुत समानताएं हैं. हमें बदलाव के लिए इसके विकल्प के लिए तैयार रहना चाहिए। आने वाली पीढ़ी को इस हेतु सक्षम बनाना चाहिए।

    सत्ता प्राप्ति के बिना कई प्रकार के सामाजिक अन्याय को समाप्त करना मुश्किल है। इस पर आजादी के दौर में बहुत लम्बी-चौड़ी बहसें हुईं, आन्दोलन हुए, वाद और प्रतिवाद हुए। हमारे समाज के कई लोग राजनीति में आये और धार्मिक क्षेत्र में आये, उनका उद्देश्य सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में मेघ समाज की गरिमा को ऊपर उठाना था। सामाजिक क्षेत्र में खिलाफत आन्दोलन की धुरी हमारा समाज ही बना रहा। उनकी ईमानदारी पर शक नहीं किया जा सकता है। वे लोग प्रतिबद्ध थे। इस समाज के कई लोगों ने साधु-संन्यासी होकर, समाज-सुधारक बनकर और नेता बनकर इस समाज का मार्गदर्शन किया। ऐसे प्रत्येक शख्स में समाज को एक नयी दिशा देने का जोश था, प्रेरणा थी और परिस्थिति थी। चाहे वे साधन संपन्न थे या साधन विपन्न, वे अपने ध्येय के प्रति अटूट आस्थावान थे। शहरों में संस्थाएं आन्दोलन कर रही थीं तो गांवों में हमारी पंचायतें पूरे संकल्प और शक्ति के साथ थोपी गई निर्योग्याताओं के विरोध में हर स्तर पर आंदोलनरत थीं। स्यालकोट के गाँवों के संदर्भ में ऐसे माहौल का वर्णन श्री मुंशीराम भगत की पुस्तक ‘मेघ-मालामें और डॉ. ध्यान सिंह के शोधग्रंथ ‘पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकासमें भी मिलता है। मेघवाल समाज का सर्वाधिक संघर्ष और आन्दोलन गांवों में रहा, क्योंकि उनकी कुल जनसँख्या का 92% भाग यानि 100 में से 92 लोग गांवों में ही रहते हैं। इस समाज के सन 1879 में हुए निर्णय की पृष्ठभूमि और बाबा साहेब के 'गंदे धंधे और बेगारी छोड़ने के आह्वान'ने इस समाज को पुनः जागृत कर दिया और फिर एक बार सवर्ण समाज के सामने - धर्म के स्तर पर, राजनीती के स्तर पर और सामाजिक स्तर पर चुनौती पैदा कर दी। मेघवालों का 'खुली-बंधी'और 'बेगारी-उन्मूलन'ऐसे ही आंदोलन थे। उनका मूल्यांकन अभी नहीं हुआ है। लेकिन राजनीतिक रूप से उस समय जो मेघवालों का वजूद दिखा था, वैसा अब नहीं है।

    अंततः हमारे जो राजनीतिक प्रतिनिधि हैं, वे माला पहनने के बाद सोचते हैं कि उनका काम हो गया, उनके समाज का काम हो गया, गैर-बराबरी और भेदभाव ख़त्म हो गया, जातिगत अन्याय और अत्याचार नहीं रहे। वे अपने समाज की समस्याओं को विरोधियों के सामने या उपयुक्त आसन के सामने उठाने में कतराते हैं। वे सामाजिक आन्दोलनों से दूर भागते हैं। केवल माला पहनने के मौके ढूँढते हैं। आजादी के बाद शायद ही किसी भी नेता ने अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध आन्दोलन किया हो या उसका नेतृत्व किया हो। ऐसा उदाहरण मिलता होगा। यह विडम्बनापूर्ण और भयावह है।

    सामूहिक प्रयत्नों में बहुत बल होता है। भलेई हमारे पास धनबल न हो लेकिन यहाँ लाखों की संख्या में हमारे लोग रहते हैं। हर साल एक-एक रूपया भी दें तो भी हर साल लाखों में फंड इकटठा हो सकता है। इसका एक उदाहरण मेघवाल समाज शैक्षणिक और शोध संस्थान, बाड़मेर ने प्रस्तुत किया है। यह की प्रकार की समस्याओं का समाधान दे सकता है. हमें खुद के द्वारा विकसित संस्थानों के माध्यम से आने वाली पीढ़ी के लिए प्रशिक्षण और ट्रेनिंग की व्यवस्था करनी होगी।

    कुल मिलाकर बात यह है कि जिस प्रकार की समाज़िक, धार्मिक और राजनीतिक स्थिति हमें चाहिए, वैसी स्थिति प्राप्त करने में हमें देर नहीं करनी चाहिए। हम लोगों की जनसंख्या अपने आप में इतनी विशाल है कि हम लोग राजनीति में या किसी धर्म में एक साथ रहते हैं तो एक सबल और उन्नत समाज का निर्माण कर लेंगे। हमारे बिना किसी की राजनीति परवान नहीं चढ़ सकती। हिन्दू धर्म का अस्तित्व भी हमारी वजह से है। अगर किसी धर्म को मानने वाले ही नहीं हों तो उस धर्म की क्या गति होगी? आप अंदाजा लगा सकते हैं।

हमारा मुक्ति-संघर्ष नया नहीं है। मुक्ति संघर्ष में बेगारी के साथ खेती की जमीनों पर जो बिचौलियों और सूदखोरों का भयावह साया था, उसके विरुद्ध भी मेघ बहुल इलाकों में एक साथ आवाज उठी। बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के प्रभाव से इस में क्रन्तिकारी बदलाव आये और जब सर छोटूराम ने 'यूनियनिस्ट पार्टी'तले आन्दोलन चलाया तो हमारे समाज ने उनका भी साथ दिया। हमारे मेघ समाज के एडवोकेट हंसराज भगतको कौन भूल सकता है। वे इस आन्दोलन के अग्रणीय मेघ पुरुष थे।

ताराराम
(लेखक- मेघवंश : इतिहास और संस्कृति)
(पूरा आलेख इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है :- मूल आलेख)






*सार प्रस्तुति: भारत भूषण


Autobiography of Baba Faqir chand - बाबा फ़कीर चंद की आत्मकथा

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कुछ बातें अब पुरानी हो गई हैं लेकिन समझने योग्य हैं. स्यालकोट में बसे हमारे मेघ भगत समुदाय के लोग, आर्य समाज की विचारधारा से जुड़े और गायत्री मंत्र बोलने लगे. मेरे दादा महँगाराम ठेकेदार जी ने एक गुरु भी धारण किया हुआ था. वे ‘हरि ओम तत्सत’ का सुमिरन थे. अमृतसर में मैंने पिता श्री मुंशीराम भगत को तुलसीदास के भजन बड़े प्रेम से गाते देखा था. माता कर्मदेवी ने निर्मला देवी से नामदान लिया हुआ था और ‘अमृतवाणी’ का पाठ नियमित रूप से किया करती थीं. रोहतक में घर के पास ही राम मंदिर था. सो राम से जुड़ा. स्कूलिंग के दौरान टोहाना में सरकारी स्कूल वाले अकसर जैन साधु-साध्वियों के व्याख्यान करवाते थे. वहीं सनातन धर्म मंदिर में हरमिलापी जी के दर्शन मिले. 1966 में चंडीगढ़ में आर्यसमाजी स्वामी अग्निवेश के 10 दिवसीय शिविर में भाग लिया.

 एक सफ़र के दौरान कुछ साधुओं से यह सुन कर कि- ‘सबसे ऊँचा ज्ञान होशियारपुर का एक बाबा फकीर चंद दे रहा है’, -मेरे पिता उनके आश्रम में आने-जाने लगे. वे उनसे इतने प्रभावित हुए कि रिटायरमेंट के बाद 14 वर्ष तक उनके आश्रम में ही रहे. ‘मानवता मंदिर’ नामक वह संस्था उस समय ‘मानवता’ और ‘समता’ का बैनर लिए खड़ी थी.

1968 में जब मैं ‘मानवता मंदिर’ गया तो देखा कि वहाँ 'राधास्वामी'नाम चलता है. सिरसा में मैंने बाबा चरण सिंह जी का एक सत्संग सुन रखा था (मैं उन्हें आज भी याद करता हूँ). ऐसा लगा कि मानवता मंदिर भी राधास्वामियों की कोई शाखा होगी. लेकिन बहुत जल्दी लगने लगा कि यह केंद्र कुछ अलग है. लगभग दो महीने मैं वहाँ रहा. फिर किसी और जगह जाने की ज़रूरत नहीं रही. आखिर क्या था फकीर की शिक्षा में?

उस समय तक मैं जिस किसी धार्मिक/आध्यात्मिक शिक्षा देने का दावा रखने वाली जगह गया वहाँ (खासकर चेलों/अनुयायियों द्वारा) यही बताया जाता था कि भगवान या गुरु की मूर्ति प्रकट होती है और कि मूर्ति प्रकट होना और उनके काम हो जाना भगवान/गुरु का चमत्कार या बड़प्पन होता है. मैंने बाबा चरण सिंह का दूसरा सत्संग होशियारपुर में ही सुना था लेकिन उन्होंने कहीं ऐसा नहीं कहा कि वे किसी में प्रकट हो कर उनके काम करते हैं. हालाँकि ऐसे लाखों किस्से सुनने को मिले हैं कि उनका रूप प्रकट हो कर लोगों के काम कर जाता है. लेकिन बाबा फकीर चंद ने स्पष्ट कहा कि वो किसी के अंतर में प्रकट नहीं होता और न ही कोई चमत्कार करता है. उनका कहना था कि- “मेरा रूप लोगों में प्रकट होता है, उनके काम कर जाता है, लेकिन वो मैं नहीं होता” और कि "ऐसे चमत्कार व्यक्ति के अपने संस्कारों और विश्वास की वजह से होते हैं". बाबा फकीर चंद को मैंने एक ईमानदार गुरु के रूप में जाना और माना.

बचपन में ‘आस्तिक’ शब्द का अर्थ समझने के बाद मुझे लगा कि मैं आस्तिक हूं लेकिन कुछ बड़ा हो जाने के बाद मुझे लगने लगा कि मैं नास्तिक-सा हो रहा हूँ. यह संभवतः फ़कीर का ही प्रभाव था (इसकी व्याख्या फिर कभी). तब मुझे स्पष्ट नहीं था कि आस्तिकता, नास्तिकता और आध्यात्मिकता से परे भी कुछ है, इसलिए मैंने ‘नास्तिक-सा’ कहा है.

आध्यात्मिकता के इतने सघन अनुभव होते हुए भी फकीर के व्यक्तित्व में ऐसा क्या था जिसकी संगत में मैं नास्तिक-सा हो रहा था, इसे समझने के लिए फकीर के ही जीवन को समझना बहुत ज़रूरी है. फकीर ने कोई आत्मकथा नहीं लिखी थी. लेकिन कैलीफोर्निया, अमेरिका के दर्शनशास्त्र के एक चर्चित प्रोफेसर डॉ. डेविड सी. लेन के कहने पर फकीर ने एक आत्मकथा डिक्टेट करवाई थी. उसका हिंदी अनुवाद करने का संकल्प वर्षों से मन में था. उस अनुवाद का लिंक यह है --- अनजान वो फ़कीर

इस आत्मकथा से स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर और धर्म के रास्ते पर हम क्या-क्या तलाशते हैं, समझते हैं और करते हैं जिसका वास्तविकता और सच्चाई से वास्ता नहीं होता. हम ढूँढते कुछ हैं और निकलता आता कुछ और है.

Megh Bhagats and Politics - मेघ भगत और राजनीति

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पंजाब में चुनाव आने वाले हैं. मेघ भगतों के भीतर राजनीति कुलबुलाने लगी है. हर कोई रास्ता ढूंढ रहा है कि कैसे मेघ भगतों की एकता कार्य करे और उसको या उसके किसी पसंदीदा व्यक्ति को किसी बड़ी पार्टी का टिकट मिले. लेकिन मुझे नहीं लगता कि मेघ भगतों ने आज तक अपने किसी लीडर को सलीके से प्रोजेक्ट किया हो या किसी नेता के समर्थन में एकता दिखाई हो या कभी राजमार्ग या रेल मार्ग रोकने की धमकी तक दी हो.
 
जैसा कि मैं कहता रहता हूँ शुद्धिकरण के बाद मेघ भगतों में राजनीतिक महत्वाकांक्षा एकदम बढ़ गई थी और उन्होंने म्युनिसिपल कमेटियों में प्रतिनिधित्व की मांग उठा दी जिससे आर्यसमाजी परेशान हो उठे थे. अब तो समय काफी बदल गया है. सन 1937 में एडवकेट हंसराज भगत अविभाजित पंजाब की विधान परिषद के सदस्य बने थे. उसके बाद पंजाब से दो-चार मेघ भगत विधान सभा/परिषद में पहुँचे हैं.
 
पिछले चुनाव में जीते हुए प्रतिनिधि अचानक आगामी चुनाव के मौसम में सक्रिय हो कर थोड़े बहुत विकास कार्यों में, कबीर मंदिरों/धार्मिक स्थानों में, सार्वजनिक स्थानों के निर्माण में पैसा लगाने लगते हैं ताकि पिछले 4 वर्षों में जो वे नहीं करना चाहते थे या जो उन्होंने नहीं किया उसे वे आखिरी वर्ष में जल्दी से शुरू कर दें ताकि जनता उनको वोट दे दे. दूसरी ओर हारी हुई पार्टियों के लोग फिर से लोगों के साथ जुड़ने का प्रयास करने लगते हैं जैसे लोग उनकी बात को तुरत मानकर कोई परिवर्तनकारी कार्य कर देंगे या पिछली पार्टी को उठा कर पटक ही देंगे. लगातार काम करने में किसी का यकीन है, ऐसा दिखता नहीं है. अब लगने लगा है कि मेघ भगत बासी हो चुकी ऐसी राजनीति से ऊब चुके हैं. नेता टाइप और अनुभवी लोग इस बात को जानते/समझते हैं कि मेघ भगतों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा बहुत छोटी है और वे बहुत आगे बढ़ कर राजनीति के क्षेत्र में कोई धावा बोलने वाले नहीं हैं (काश मेरा ऐसा कहना गलत हो). इसके कारण भी बहुत हैं. कमोबेश यह एक संतुष्ट-सा समाज है जिसे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी और दिहाड़ी से मतलब है. अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए सत्ता द्वारा निर्मित नीतियाँ कितनी महत्वपूर्ण होती हैं उसे इससे बावस्ता नहीं होना पड़ता और वे अक्सर उदासीन बने रहते हैं. यह कोई इल्जाम नहीं है यह समुदाय की प्रवृत्ति है जो अक्सर देखी गई है और माना जाता है यह समाज कोई बड़ी उथल-पुथल करने के लिए बना ही नहीं है.
 
आने वाली पीढ़ी से बहुत उम्मीदें हैं जो यह बात समझ रही है कि राष्ट्रीय संसाधनों पर वंचित समाजों का जो छीना गया हक है उसे वोट की ताकत से वापस लेने की जरूरत है. इसके साथ उन्हें यह भी समझने की ज़रूरत पड़ेगी कि चुनाव के दिनों में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के 'मेगा मुद्दे'गायब क्यों हो जाते हैं और क्यों धर्म, जाति, समाज, हिंदुत्व, इस्लाम वगैरा मुद्दे बन जाते हैं और आखिर हम क्यों उन्हें पकड़ कर बैठ जाते हैं? क्यों रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा आदि जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे चुनाव की गर्मी में भाप हो जाते हैं? हमारा चुनावी एजेंडा हम तय नहीं करते तो हम किसका एजेंडा बेचते फिर रहे हैं?

Study Link : Agenda Setting Theory 


Unity of Meghs and Khaps - मेघों की खापें और एकता

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पंजाब में चुनाव आने वाले होते हैं तो मेघ भगतों में एक बेचैनी बढ़ने लगती है कि चुनाव के प्रयोजन से उनके समुदाय में एकता क्यों नहीं होती. उनके वोटों का समेकीकरण या ध्रुवीकरण (consolidation or polarisation) क्यों नहीं होता. इस पर पहले भी मैंने पहले दो-एक ब्लॉग लिखे थे. इस ब्लॉग की प्रेरणा फेसबुक से मिली है. 

फेसबुक पर एक सज्जन भगत पवन कौशल मेरे मित्र हैं. उन्होंने उल्लेख किया था कि कोई भी राजनीतिक दल मेघों को पर्याप्त रूप से ध्यान नहीं देता. उनकी पोस्ट के उत्तर में मैंने उन्हें सुझाव दिया कि मेघों की अपनी खापें (गोत्र) हैं, निर्णय लेने में उनकी सही भूमिका का उपयोग बहुत कारगर हो सकता है. लेकिन समस्या यह है कि मेघों के टूट चुके पंचायती सिस्टम को फिर से खड़ा करने का कार्य कौन करे.

इतिहासकार बताते हैं कि मुग़लों के आने से पहले भी हमारे यहाँ के मेघवंशियों का अपना लोकतांत्रिक सिस्टम और न्याय प्रणाली थी जिसमें पंचायतों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी. मेघों ने अपने जातीय समूहों में अनुशासन और न्याय के लिए उक्त प्रणाली का सदा सम्मान किया जो उनके सामूहिक और राजनीतिक विवेक की पराकाष्ठा थी. चूँकि मेघों और जाटों का मूल मेल खाता है इस लिए जाटों की खापों का उदाहरण देना समुचित होगा. जाटों की खापें आज भी सजीव हैं और गतिमान हैं. जाटों ने अपनी खापों का रचनात्मक और राजनीतिक इस्तेमाल सफलतापूर्वक किया है जिसका प्रभाव राजस्थान, उत्तरप्रदेश और पंजाब और पाकिस्तान में भी दिखता है.

ये खापें सामाजिक क्षेत्र में इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि एक ही गोत्र के लड़के-लड़कियों में शादियाँ न हों या समाज के आंतरिक विवादों का आपसी बातचीत से हल निकल आए. इस परंपरा के अनुभव अच्छे रहे हैं. खापों के नियम अनजाने में टूटे ना हों ऐसा भी नहीं है. लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि जाटों ने अपनी खापों का सर्वाधिक प्रयोग अपनी शैक्षणिक संस्थाओं के विकास और सामुदायिक विकास के कार्य संपन्न करने के लिए किया है. कभी-कभी उनकी विभिन्न खापों की महापंचायत होती है जिसके निर्णय राजनीतिक भी होते हैं. वे पूरे राज्य की राजनीति को एक दबाव समूह (Pressure Group) के तौर पर प्रभावित करते हैं. उन दबाव समूहों की बात सुनने के लिए अड़ियल सरकारें और राजनीतिक दल भी मजबूर होते हैं.

इस दिशा में मेघों को कार्य करना चाहिए. संभव है यह कारगर हो. जम्मू में वर्ष में दो बार गोत्रों का मेल होता है - पूर्वजों की याद में और धार्मिक भावना से लेकिन बिना बड़े सामाजिक और व्यावहारिक उद्देश्य के. मेघों में राजनीतिक जागरूकता लाने के लिए इन मौकों का इस्तेमाल सियासतदानों को करना चाहिए. इसमें बहुत मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी.

गोत्र के निर्णयों का प्रभाव जादुई होता है, यह मानवजाति का अनुभूत सत्य है. जब एक गोत्र कोई पहल करके सफलता प्राप्त करता है तो अन्य गोत्र अनुकरण करने लगते हैं......और जब सभी गोत्रों का सामूहिक बल एक दिशा में लगने लगता है तो असंभव दिखने वाले ध्येय सधने लगते हैं. धरती का जीवन बदलने लगता है.





Meghs and Kabir - मेघ और कबीर

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ग़रीब का दिमाग़ स्वाभाविक रूप से ऐसा बन जाता है कि उसमें 'ईश्वर-परमेश्वर'नाम की खरपतवार स्वाभाविक रूप से फैल आती है. उसे रोज़गार देने वाला ऐसा ही चाहता है. इसकी वजह यह है कि उसे जो भी आशा की किरण नजर आती है वह इसी विचार में होती है कि कोई तो उसका ईश्वर, मालिक, स्वामी, रोज़गारदाता वगैरा है जो कभी--कभी उसकी सुनेगा और उसे सहारा दे कर बेहतर जीवन देगा. उसी विचार को बल देते हुए वह जीवन काटता है. कुछ मिला तो ठीक, नहीं तो न सही जबकि उसे यह समझने की ज़रूरत होती है कि उसके हालात को सरकारी नीतियाँ बदलती हैं और उस बदलाव का रास्ता राजनीति से हो कर ग़ुज़रता है.

कठिन जीवन में आँखें बंद करके मिलने वाला आध्यात्मिक आनंद उसे सुकून देता है. वंचित व्यक्ति ईश्वर, परमेश्वर, आध्यात्मिकता, आत्मा-परमात्मा के विचारों में खुशी हासिल करता है बिना जाने कि उनका वजूद है भी या नहीं. यही वजह है कि गरीब तबकों के लोग अधिक आस्थावान हो जाते हैं. संतुष्ट रहना उसकी मजबूरी है- “रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, देख पराई चोपड़ी मत ललचावे जी.” लेकिन यदि कोई बेहतर जीवन की कामना को लालच की केटेगरी में डाले तो उसे धूर्त ही समझना चाहिए. अब आगे चलते हैं.

मेघ भगत सदियों से अपने पुरखों, वड-वडेरों की मान्यता/पूजा के अतिरिक्त भगती के कायल रहे हैं जिसका सीधा संबंध उनकी गरीबी से रहा. आर्य समाजियों ने शुद्धिकरण करके उन्हें भगत बना लिया. चलो जी, हम 'मेघ'से 'भगत'हो गए.

भक्तिमार्ग की एक विशेषता यह है कि वह गरीबी दूर करने का तरीका नहीं बताता. उसका काम है यह बताना कि गरीबी में कैसे रहा जाए. जहाँ तक माँगने की आदत कासवाल है कबीर ने साफ़ कहा है- "मागन गए सो मर गए मत कोई मागो भीख, माँगन से मरना भला यह सत्गुर की सीख.


अद्भुत कबीर

चौदहवीं शताब्दी के कबीर, रविदास जैसे संतों ने वंचित समुदायों को भक्तिभाव में उतना नहीं डुबोया जितना उन्हें सामाजिक चेतना की ओर मोड़ा. यह उनका क्रांतिकारी कार्य था. मेघों और अन्य वंचित जाति समूहों द्वारासंतों का भक्तिमार्ग अपनाना और ख़ुद को उनका अनुयायी बताना उसी सामाजिक चेतना का विकसित लक्षण है. बहुत से मेघ अब ख़ुद को कबीरपंथी लिखना पसंद करते हैं. यहाँ समझने की बात है कि पंद्रहवीं शताब्दी के कबीर को मेघों ने 19वीं शताब्दी में अपनायासुना है 15 अगस्त, 1947 (जो पंजाब के मेघ भगतों के आधुनिक इतिहास की कट-ऑफ़ डेट है) के बाद पठानकोट और जम्मू के क्षेत्र में मेघों द्वारा कबीर का प्रकाश उत्सव मनाने का प्रचलन बढ़ा और कबीर मंदिरों के निर्माण में तेज़ी आई.

इन दिनों पंजाब और जम्मू में अनेक कबीर मंदिर और उनकी कमेटियाँ बनीं हुई हैं जिनमें परस्पर प्रतियोगिता है. राजनीतिक धड़ेबंदियों उन पर हावी हैं और क्यों न हों आख़िर उन्हें कोई बना-बनाया वोट बैंक अपने आक़ा को दिखाना होता है. 'धन् कबीर'और 'जय कबीर'इस वोट बैंक की धार्मिक-राजनीतिक निशानी बन सकती है. सोशल मीडिया पर कबीर की ऐसी वाणी परोसी जाने लगी है जो भक्तिधारा का प्रतिनिधित्व करती है. सामाजिक चेतना जगाने वाली कबीर की वाणी वहाँ शायद ही दिखाई दे. सियासतदानों की पूरीकोशिश मेघों को अपना भक्त और वोट बैंक बता कर पेश करनेकी है. मेघ भगत चाहे राधास्वामीमत में हों, किसी डेरे-गुरु को मानने लगे हों या सनातनी या आर्यसमाजी हो गए हों, धर्म ग्रंथों का अखंडपाठ या जागरण करवाते हों, हैं वो भक्त ही. उनकी अपनी धार्मिक और राजनीतिक ताक़त दूर तक नहीं दिखती.

कुछ कबीर मंदिरों में ज़रूरतमंद बच्चों के लिए कंप्यूटर या अन्य प्रकार के शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था हुई. कबीर मंदिरों का यह सबसे सुंदर इस्तेमाल है जिसका सीधा लाभ समाज को पहुँचता है. उधर प्रश्नचिह्नों से घिरे 'ईश्वर-परमेश्वर'या देवी-देवताओं ने वंचित समाजों को कोई फ़ायदा नहीं पहुँचाया, उनकी सामाजिक स्थिति को तो बिल्कुल नहीं बदला.

तीन सौ वर्ष पहले दुनिया के कई देशों ने विज्ञान को महत्व देना शुरू किया. वे आज विकसित राष्ट्र हैं. इसे देखते हुए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में वैज्ञानिक दृष्टिकोण (temperament) विकसित करने को महत्व दिया गया.कबीर ख़ुद भी बुद्ध और उनके जैसे शिक्षित लोगों की तरह तर्कशील और विवेकशील थे. ऐसे में उनके मंदिरों या उनसे होने वाली कमाई का शिक्षा के प्रयोजन से इस्तेमाल करना समाज के लिए क्या अधिक लाभकारी नहीं होगा?

मेघ समाज ने कबीर की भक्ति-वाणी के अपने कई प्रचारक पैदा कर लिए हैं लेकिन अन्य समाजों के लोग भी मेघों में आ कर यही काम करने लगे हैं. जब धर्म एक व्यापार के तौर पर स्थापित है तो उसके नियम सीखने चाहिएँ. व्यापारिक घुसपैठ, तोड़-फोड़ आदिके ख़तरे भाँपने होंगे.

जानने की बात है कि ईसाइयत और इस्लाम के अनुयायियों के बाद अब ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस हैं. वे दुनिया की आबादी का लगभग एक तिहाई हैं और उनकी संख्या तेज़ी से बढ़ रही है. सवाल बनता है कि हम भगत या कबीरपंथी कहलाने वाले भोले-भाले भक्त लोग भक्ति को ज़रूरत से अधिक वक़्त दे करवैज्ञानिक दुनिया में पिछड़ तो नहीं रहे हैं? हमारा भक्तपना तरक्की के रास्ते में देरीका कारण तो नहीं बन रहा है?

(आपके पास बहुत थोड़े आर्थिक और मानव संसाधन हैं. ऐसे में उनका उपयोग आप कैसे करना चाहेंगे,सोचिएगा.)

धार्मिक जगह क्यों? शिक्षा क्यों नहीं!
 


A Hunter and a prey - एक शिकारी और एक शिकार

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''जब तक हिरण अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे तब तक हिरणों के इतिहास में शिकारियों की शौर्य गाथाएं गाई जाती रहेंगी'': चिनुआ अचीबी(Chinua Achebe)

भारत के स्कूलों में पढ़ाया जाने वाला इतिहास चिनुआ अचीबी के बताए कटु सत्य का प्रमाण है. देवों का महिमागान, अतीत के किन्हीं हुए-अनहुए वैदिक राजाओं की प्रशंसा, उनकी आकर्षक और रोचक बातों से साहित्य भरा हुआ है और इतना कि अधिकतर वह गप शैली से हवा-हवाई हो गया है. उन कथाओं में हारते हुए, मरते हुए या नरक जाते हुए वही लोग हैं जो आज इतिहास की कक्षाओं में बैठे महसूस करते हैं कि पढ़ाए जा रहे इतिहास में उनके और उनके पुरखों के बारे में तो कुछ लिखा ही नहीं गया. 

शिक्षित होने के बाद अब भारत का वंचित समाज इस ओर ध्यान दे रहा है कि इतिहास कही जाने वाली उन पौराणिक कहानियों में प्रजा के विभिन्न समूहों का वर्णन तो है ही नहीं. कारीगरों, वास्तुशिल्पियों, हस्तशिल्पियों, किसान-कमेरों, समाज की महत्वपूर्ण घटक स्त्री आदि की वास्तविक हालत का विस्तृत बयान उनमें नहीं है. राजा की कहानी में इतना ज़रूर जोड़ा जाता है कि 'उसके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी'. लोगों को गुलाम बनाने के उस काल में गुलामों के साथ जो हिंसा और अत्याचार हुआ उसके बारे में इतिहास चुप रहता है. लेकिन धार्मिक ग्रंथ उसे 'सुर-असुर संग्राम'के रंगों में रंग करसही और न्यायसंगत बताते चलते हैं, अभी तक बता रहे हैं. धार्मिक पुस्तकों के रूप में तब का संविधान लिखने, धर्म का प्रचार करने और इतिहास लिखने वाला शिकारी समूह एक ही था अतः पुरोहितों का गुणगान करना वह नहीं भूलता. तथापि, वह उस हिरण की बात नहीं करता जो गुलामों के रूप में उनके क्रूर हाथों में आ गया था. आरएसएस और उसकी राजनीतिक पार्टी भाजपा आज भी उस इतिहास-बोध का वहन कर रही है, प्लास्टिक सर्जरी से इंसानी बच्चे के सिर पर हाथी का सिर लगा रही है.

यह ऐसा इतिहास-बोध है जो महिलाओं और मेहनतकशों की स्थिति सुधारने की बात कर ही नहीं सकता. वह राजाओं जैसी ऐशपरस्ती और सामंतवाद जैसी हिंसक प्रवृत्तियों का साथ निभाता है. उसे पूरा विश्वास है कि यदि वह लोगों के हाथों में पढ़ने के लिए धार्मिक पुस्तकें और धार्मिक पोस्टर थमा दे तो उसका धंधा चलता रहेगा. उसे मुख्यतः पुरुषवादियों की ज़रूरत होती है स्त्रीवादियों की नहीं.

आप जब अपने जीवन स्तर को सुधारने की बात करेंगे तो उस इतिहास-बोध को धारण करने वाली वह राजनीति आपको सीमा सुरक्षा के लिए खड़े आपके जैसे भाइयों और उनकी राष्ट्रभक्ति देखने को कहेगी और आपको चुनौती देगी कि - "असली राष्ट्रभक्त कौन है, वो फौजी, या आप?"सामाजिक समस्याओं से उसका कोई ख़ास सरोकार नहीं. आपको डराने के लिए उसे बस इतना कहना है कि मुसलमान और ईसाई ख़तरनाक हैं. इससे उसे यह प्रचार करने में आसानी हो जाती है कि छुआछूत के लिए हिंदुत्व ज़िम्मेदार नहीं क्योंकि छुआछूत मुगलों के आने के बाद भारत में आई. सोशल मीडिया पर ऐसा प्रचार काफी हुआ है.लेकिन वे इस बात का जवाब नहीं देतेकि 'मनुस्मृति'हज़रत मोहम्मद ने या ईसा ने लिखी थी क्या?

मतलब यह कि धर्म अपना एजेंडा कई प्रकार से आप पर थोपता है. आपको अपना कोई राजनीतिक एजेंडा बनाने ही नहीं देता. आप उलझे रहते हैं कि आपकी समस्या धर्म है या आपके परिवार का रोज़गार. आपकी समस्या ISIS है या लग़ातार घटती आपकी ख़रीदने की ताक़त, आपकी समस्या गो-माता है या महँगी होती शिक्षा या फिर आपकी समस्या पूजा-पाठ है या महँगी होती चिकित्सा. ़ाहिर तथ्य है किआपकी नियति राजनीति निर्धारित करती है. कब तक हिरण बने रहोगे. जागो! डॉ. अंबेडकर का बताया इतिहास जानो. ख़ूब पढ़ो और ख़ुद भी लिखो. जागो और इतिहासकेशिकारी बनो.


Choose right direction – सही दिशा चुनें

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भाजपा ने गुजरात में मोदी जी के विकास माडल को बहुत ज़ोर-शोर से प्रचारित किया है तो दूसरी ओर कई जाने-माने अर्थशास्त्रियों ने गुजरात माडल की जम कर आलोचना भी की है. आम आदमी स्थूल अर्थशास्त्र की सूक्ष्मताएँ नहीं जानता. वह इतना जानता है कि उसे कितना पैसा मिला और कि उसका गुज़ारा चल रहा है या नहीं. वह नहीं जानता कि शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकार अपनी नागरिक ज़िम्मेदारी निभा रही है या नहीं, या कि विकास के नाम पर कार्पोरेट्स को दिए गए संसाधनों का सही इस्तेमाल हो रहा है या नहीं.

गुजरात में इन दिनों गाय को लेकर एक सामाजिक उथल-पुथल हुई है. सामाजिक घृणा की शिकार कुछ जातियों ने पंरपरागत मृत पशुओं का चमड़ा निकालने का अपना पेशा छोड़ने का निर्णय लिया है. उनका भविष्य क्या होगा पता नहीं. अपने उस पेशे से अलग हो कर वे नए पेशे अपनाएँगे या उन्हें नए पेशे अपनाने दिए जाएँगे, इस पर बदमज़ा करने वाली बहसें सुनने में आ रही हैं. ऐसा क्यों हो रहा है?

भारत के लोगों ने खुद को दुनिया का बहुत बढ़िया कहा जाने वाला संविधान दिया है तो क्या वे उस संविधान को ज़मीन पर घटित होते देखना चाहते हैं? इस बारे में व्यक्त संशय पुराने हैं. कोई भी सत्ताधारी अपनी आर्थिक नीतियों को पूरे देश पर लागू करने की हालत में होता है. लेकिन आर्थिक नीतियाँ एकांत पर लागू नहीं होतीं. उनका असर सारे समाज पर पड़ता है. सारे का मतलब सारे. यानि अर्थव्यवस्था का पूरा योग-क्षेम, भला-बुरा अंततः समाज ने वहन करना होता है. यदि समाज उसे ढो नहीं पाता तो व्यवस्थाएँ टूटनी शुरू हो जाती हैं जैसा दुनिया का इतिहास बताता है. गुजरात में परंपरागत पेशों को छोड़ रही जातियों में एक बेचैनी बढ़ रही है जिसे देश के अन्य राज्यों में भी बारीकी से देखा जा रहा है. यह कभी बिस्फोटक हो सकता है.

देश में आज़माए गए विकास के माडल आखिर कहाँ चूक रहे हैं? भटकी हुई राजनीति उसका सही विश्लेषण क्यों नहीं कर पा रही? यह मोटा सिद्धांत है कि टिकाऊ विकास के लिए टिकाऊ समाज ज़रूरी होता है. समाज को टिकाऊ बनाना क्या राजनीति का पहला सामाजिक लक्ष्य नहीं होना चाहिए? आरएसएस से प्रेरित भाजपा सरकारें देश की सामाजिक बनावट को मज़बूत बनाती क्यों नहीं दिख रही हैं? ये बहुत गंभीर सवाल हैं. इस दिशा में असफलता का अर्थ होगा कि ये सवाल कल बवाल बन सकते हैं.

A story from a folksinger - लोक गायक से एक कहानी

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जो यहाँ कहा है वह सार है. विस्तार से नीचे दिए वीडियो में कहा है.

बचपन में एक हम मज़ेदार कामेडी गाना सुना करते थे - सिकंदर ने पोरस से की थी लड़ाई, जो की थी लड़ाई, तो मैं क्या करूँ! कौरव ने पांडव से की हाथापाई, जो की हाथापाई तो मैं क्या करूँ! उसमें एक उखड़े हुए स्टूडेंट की तकलीफ़ थी. उस समय की स्कूली पढ़ाई और व्यावहारिक जीवन के बीच की दूरी या गैप उसमें हँसी पैदा करता था.

भारत में जो इतिहास पढ़ाया जाता है उसमें बहुत से गैप हैं. गैप को खोद-खोद कर गुम इतिहास को निकालना हमने अंग्रेज़ों से सीखा. वरना पंडित से सुनी कथा ही हमारे लिए इतिहास था. शिक्षा और विज्ञान के साथ बुद्धि बढ़ी तो विद्वानों ने कहानियों पर सवालिया निशान लगाना सीखा. उदाहरण के तौर पर अब भाषा-विज्ञानी बताते हैं कि संस्कृत में लिखी रचनाएँ दो हज़ार साल से अधिक पुरानी नहीं है. सम्राट अशोक के समय लिखे गए शिला लेखों में संस्कृत का एक भी शब्द नहीं है. इतिहास की नई खोज चाणक्य के ऐतिहासिक पात्र होने पर ही गंभीर सवाल उठाती है.

जब श्री आर.एल. गोत्रा जी ने बताया कि एक लोक गायक राँझाराम मेघों की कथा को सिकंदर से जोड़ता था तो यह मेरे लिए एक नई बात थी. गोत्रा जी ने इसका उल्लेख एक सोशल साइट पर किया तो एक अन्य सज्जन ने उनका समर्थन किया. गोत्रा जी से एक अन्य संकेत भी मिला कि श्री राँझाराम की रिश्तेदारी श्री सुदेश कुमार, आईएएस से है जो मध्यप्रदेश काडर से सेवानिवृत्त हैं. 29-08-2016 को सुदेश भगत जी से बात हुई तो उन्होंने पुष्टि की कि श्री राँझाराम उनके पिता श्री तिलकराज पंजगोत्रा के फूफा थे और वे लोक गायक थे. फिर कहता चलता हूँ मेघ समुदाय में लोक गीतों का लगभग अभाव है.

23-08-2016 को मैंने एक अन्य मित्र कर्नल तिलकराज भगत जी से फोन पर बात की तो उन्होंने बताया कि उनका बचपन स्यालकोट के पास अपने गाँव मयाणापुरा में बीता है जहाँ राँझाराम के कार्यक्रम वे देख चुके हैं. राँझाराम की कथाएँ इतिहास भले न हों लेकिन उनमें ऐतिहासिक संकेत तो हो ही सकते हैं. वैसे भी लोक गायक घटनाओं को अपने शब्दों में ढालते आए हैं. कर्नल तिलकराज ने संकेत किया है कि मेघों के कुछ गोत्रों के नाम ग्रीक शब्दों से निकले प्रतीत होते हैं. यह अध्ययन का विषय है. ज़ाहिर है राँझे जैसे अन्य कई लोक गायकों के हाथों में उन दिनों कलम-दवात या पोथियाँ तो थी नहीं लिहाज़ा पंडितों से सुनी-सुनाई बातें वे अपने गीतों में कहते रहे.

गोत्रा जी ने यह प्रश्न एक से अधिक बार पूछा है कि ब्राह्मण समुदाय में सिकंदर नाम रखने की एक परंपरा दिखती है, तो कहीं सिकंदर ही आर्यों का देवता आर्यवंशी इंद्रतो नहीं था? पता नहीं, मैं नहीं जानता. लेकिन पंडित जयशंकर प्रसाद का नाटक 'चंद्रगुप्त'पढ़ा है जिसमें एलेक्ज़ांडर यानि सिकंदर का नाम अलक्षेंद्र (अलक्ष+इंद्र) रखा गया है.

सिकंदर लंबा रास्ता तय करके मेदियन और पर्शियनसाम्राज्य के इलाके से होता हुआ झेलम और चिनाब क्षेत्र तक आया. उस क्षेत्र में मेघों के होने का स्पष्ट उल्लेख सर एलेग्ज़ैंडर कन्निंघमने किया है जिनकी रिपोर्टें 1871 में छपी थीं यानि सिकंदर के आने के लगभग 2200 वर्ष बाद. कन्निंघम ने जब रिपोर्ट लिखी तब मेघ उन इलाकों में काफी संख्या में बसे थे.

वक्त के साथ चलता इतिहास बदलता रहा है. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि सिकंदर ने पोरस को हराया और इतिहासकारों का मानना है कि पोरस ने सिकंदर को हराया. एक और बात भी देखने में आती है कि इतिहासकार जिस व्यक्ति का इतिहास दफ़्न करना होता था वे उसका नाम ही बदल देते थे और अपनी पसंद के व्यक्ति को हीरो बना देते थे.

सिकंदर अपने सेनापति सेल्यूकस को यहाँ छोड़ गया जिसने अपनी बेटी चंद्रगुप्त को ब्याह दी थी. ग्रीकों की बहुत सी निशानियाँ यहाँ रह गईं होंगी. वैसे भी जिस रास्ते से सिकंदर आया उस रास्ते में बहुत गोरे और बहुत साँवले लोगभी रहते थे. यह जुगलबंदी रक्तमिश्रण की कहानी कहती है.

फिलहाल राँझाराम की कथा इतना संकेत करती है कि सिकंदर की फौज के साथ हमारा कुछ न कुछ संबंध तो रहा है. इतिहास लेखन की अनुमान पद्धति में यह मान्य सिद्धांत है. दूसरी ओर यह एक प्रमाण है कि मेघों के प्राचीन इतिहास का एक अंश लोक-स्मृति (Public memory) में सुरक्षित है. मेघवंश के इतिहासकार वैज्ञानिक शोध के साथ अपना अतीत खंगालते रहेंगे जो मेदियन साम्राज्य से लेकर ग्रीस तक के इलाके के इतिहास और वहाँ की Demography के अध्ययन से हो सकता है. डीएनए का अध्ययन क्या कहता है यह भी देखने की बात है.

प्राचीन (pre-historic) इतिहास किसी एक जगह समाप्त नहीं हो जाता. किसी समय पराजित हुए भारतीय समुदायों ने अब पुरातत्व, लोक-स्मृति, तर्क, प्रमाण पर आधारित लोकतांत्रिक इतिहास बोध के साथ अपना इतिहास खुद लिखना शुरू किया है. जाट और सैनी समुदायों सहित कई अन्य समुदाय पोरस को 'अपना बंदा'कहते हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि भारत के कई समुदाय अब अपन-अपना इतिहास खुद लिख रहे हैं. आगे चल कर उन सब के समन्वय की ज़रूरत होगी.

आप भी ज़रूर कुछ कहना चाहते होंगे? ज़रूर कहिए. बल्कि बेहतर है कि लिख डालिए. शुभकामनाएँ.

History via Vedas and Puranas – इतिहास वाया वेद और पुराण

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आज अधिक नहीं लिखना चाहता. जोपढ़ा है कि उसे सीधा आपसे शेयर करना चाहता हूँ. जो मेघवंशी अपना इतिहास जानने के लिए वेदों-पुराणों में जाते हैं उनकी जानकारी के लिए चंद्रभूषण सिंह यादव के लिखे एक आलेख का लिंक नीचे दे रहा हूँ. बहुत उपयोगी है. इसे पढ़ कर विचार कीजिए कि इतिहास को ढूँढने या लिखने की कौन सी पद्धति अधिक उपयोगी रहेगी.



MEGHnet

Meghs – The Indigenous People – मेघ – मूलनिवासी लोग

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चलिए, फैसला हो गया.

इंसान की बड़ी पुरानी और पक्की आदत है कि वह अपना मूल ढूँढनाचाहता है. पहले तो उसे सब कुछ 'भगवान का'बता कर चुप करा दिया जाता था. लेकिन अब वह जान चुका है कि जहाँ-जहाँ उसके सवाल भगवान को समर्पित हो रहे थेवहाँ बहुत बड़ा लोचा है. इस लिहाज़ से कबीर का जवाब भी क्या बुरा था कि भई- 'कुदरत के सब बंदे'. लेकिन नहीं, बंदा नहीं मानता. उसका कहना है कि बंदा जब बंदे को बंदा नहीं समझता तो सवाल तो पूछने पड़ेंगे. मेघ-जन कासवाल सख़्तहैकि- 'असल बात बताओ'. सवाल अड़ा हुआ है और जवाब हकलाते हैं.

मेघों के मूल को लेकर बहुत सिद्धांत हैं. उनसे इतना संकेत तो मिलता है कि वे भारत की अन्य जातियों की तरह कई प्रकार के रक्त मिश्रण के दौर से गुज़रे हैंलेकिन वैज्ञानिक खोज विशेषकर डीएनए रिपोर्टसेसाफ़ जवाब मिले हैं और संदेह दूर हुए हैं.

जब से संयुक्तराष्ट्र ने International Day of the World's Indigenous Peoples 9 Augustघोषित किया है तब से भारत के कई समुदायों में यह जानने की जिज्ञासा बढ़ी है कि क्या वे भारत के मूलनिवासी हैं? डीएनए रिपोर्ट ने सभी सवालों के जवाब दे दिए हैं. संक्षेप में मेघ-जन भारत के मूलनिवासीहैं, वही 'मूलनिवासी'जिसे बामसेफ़ ने अपनीशैली मेंखूब प्रचारित किया है. उम्मीद है इससे व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता खुलेगाऔर समाज अपनी समस्याओं का शांतिपूर्समाधान निकाल लेगा.
https://www.youtube.com/watch?v=GWfTYiaP3PU&index=1&list=PLrKlvsV9IOwUdwDpkTXy4P8cryJXNYcrj&spfreload=5




War hysteria - युद्धोन्माद

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अपने जीवन में 1965 और 1971 के युद्धों का अनुभव हुआ जो बड़े पैमाने पर लड़े गए थे. घरों की बत्तियाँ बुझा दी जाती थीं. सायरन की आवाज़ पर हम खंदकों (trenches) में दुबक जाते थे. बमों के फटने की आवाज़ें सुनी. रात में आकाश में उड़ते ट्रेसर देखते थे और अगले दिन अख़बारों में युद्ध की सुर्खियाँ पढ़ते. रात में या दिन में टैंकों, तोपों की मूवमेंट देखते. माल गाड़ियों पर रखे टैंकों के साथ जाते फौजियों को देख कर जोश भर-भर आता था. दिल करता था कि कोई पाकिस्तानी जासूस हाथ आ जाए तो उसे ढेर कर दें. एक शरीफ़ मलेशियन नागरिक हमारे हाथों पिटने से बच गया जिसके बारे में किसी ने अफवाह फैलाई थी कि वह पाकिस्तानी जासूस है. युद्धविराम हुआ और युद्धोन्माद भी कम होता गया.

कारगिल एक सीमित युद्ध था. ज़रूरी था लेकिन सीमित था. वाजपेयी सरकार ने बड़ी कुशलता से बिना युद्ध का पागलपन फैलाए उसे जीता. बहुत से फौजियों की जानें गईं जो तकलीफ़ और दर्द दे गईं.

अब आया है एक सर्जिकल ऑपरेशन जो अपने साथ कई रहस्य लेकर आया. आमलोगों के लिए तकनीकी युद्ध नीतियाँ रहस्य रहेंगी. कूटनीतिक चालें, कूटनीतिक बयानबाज़ियाँ होंगी. युद्ध है तो सिविल क्षेत्र में अफवाहें फैलेंगी. बार्डर पर असल में क्या होता है यह केवल युद्ध लड़ रहे फौजी जानते हैं.

'सर्जिकल ऑपरेशन'को लेकर मीडिया से अधिक सोशल मीडिया सक्रिय और परेशान रहा. सरकार की कार्रवाई की प्रशंसा भी हुई और उस पर सवाल भी उठे. नेशनल मीडिया ने युद्ध का गर्म माहौल बनाने का काम किया. सोशल मीडिया ने फौजियों की कुर्बानी और उनके परिवारों की पीड़ा को रेखांकित किया और सीमा पर बसे भारतीयों पर मंडराते ख़ौफ़ और उन्हें हो रहे आर्थिक नुकसान की बात की जो युद्ध का साइड इफैक्ट है और कई परिवारों को गरीबी में धकेल जाता है.

कुल मिला कर युद्धोन्माद फैला रहे कुछ चैनलों और 'भक्तों'पर तीखे सवाल उठे हैं. मैं भी मानने लगा हूँ कि बड़बोले नेतृत्व के मुकाबले इंदिरा गाँधी, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह जैसा नेतृत्व अधिक कारगर और संतोषजनक होता है.
बेवकूफों की कमी नहीं पाकिस्तान में

Politician and Political worker - राजनीतिज्ञ और राजनीतिक कार्यकर्ता

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राजनीति दुनिया के चार बड़े धंधों में से एक है. राजनीतिज्ञ (politician) किसी विचारधारा पर चलता है लेकिन समझौते भी करता चलता है, वह विचारधारा से हट भी जाता है ताकि सत्ता में बना रहे. उसके वादे कोई गारंटी नहीं देते. उसके अस्तित्व की सार्थकता सत्ता में या सत्ता के पास रहने में है. वह मुद्दों की छीना-झपटी करता है और मुद्दों का उत्पादन करता है. वह कसम तो संविधान की खाता है लेकिन कार्य पार्टी के एजेंडा पर करता है, जैसे - युद्ध, दंगे, गाय, हिंदुत्व, धर्म आदि. उसका कार्यकर्ता (political worker, activist) उसके एनेक्सचर-सा होता है, स्थान दोयम दर्जे का और कुल मिला कर इस्तेमाल करने योग्य. राजनीतिज्ञ की पहचान उसकी राजनीतिक समझ है और राजनीतिक कार्यकर्ता अपनी सामाजिक सक्रियता और सामाजिक कार्य से सम्मान पाता है. अपने नेता की गलती का परिणाम जनता के साथ-साथ कार्यकर्ता भी भुगतता है. जब कोई कार्यकर्ता ख़ुद राजनीतिज्ञ बन जाता है तो समाज को सीधे तौर पर नुकसान होता है.
 

Megh Day, Punjab Megh Community - मेघ दिवस, पंजाब मेघ कम्युनिटी

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पिछले दिनों श्री यशपाल मांडले जी की facebookवॉल पर उक्त फोटो देखाजिसमें बैनरपर लिखा था - ‘Megh Day, Punjab Megh Community’. यानि पंजाब मेघ कम्युनिटी नामक संस्था ने मेघ दिवस का आयोजन किया था. मेरी उत्सुकता बढ़ी और मैंने उन्हें फोन करकेपूछा कि उन्हें उन दिनों 'मेघ-दिवस'मनाने का आइडिया कैसे आया?उन्होंने बताया कि यहसंस्था उन दिनों महसूसकर रही थी कि मेघ समुदाय कोडॉ.आंबेडकर की विचारधारा से दूर रखा गया है. संस्था इस बात से प्रभावित थी कि डॉ.अंबेडकर के प्रयासों से ही मेघ समुदाय अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल हो सका. इसलिए आभार प्रकट करने के लिए अंबेडकर के जन्मदिन14 अप्रैल, 1984-85 का दिन चुना और 'मेघ-दिवस'मनाया गया. उक्त फोटोउसी का प्रमाण है.

संभव है तबमेघ समुदाय के कईअन्यलोगों में भीडॉ अंबेडकर और उनकी विचारधारा के प्रति आकर्षण और कृतज्ञता का भाव रहा हो क्योंकि एडवोकेट हंसराज भगत नेडॉ.अंबेडकर के साथ मिल कर मेघों को अनुसूचित जातियों में शामिल करानेका प्रबंध किया था.डॉ.अंबेडकर के प्रति अहसानप्रकट करने की 'पंजाब मेघ कम्युनिटी'की यह कोशिश एक ऐसी पहलकदमी थी जो उन दिनों आर्यसमाजी विचारधारा वाले मेघों में एक प्रतिक्रिया अवश्य पैदा करती. कारणों का अनुमान सहज लगाया जा सकता है. मांडले जी कहते हैं कि उनकी संस्था द्वारा दो-तीन बारआयोजित उक्त कार्यक्रमोंका जम कर विरोध किया गया. फिरऐसे कार्यक्रम करने कीकोशिशें छोड़ दी गईं.


मांडले जी बताते हैं कि उन दिनों उक्त संस्था के प्रधान श्री चूनी लाल जी थे जो टेलिफोन विभाग सेथे. आज कल इसके प्रधान श्री जी.के.भगत हैं जो दिल्ली में हैं.संस्था के कार्यक्रमों में चौ. चांद राम, मीरा कुमार जैसे नेता भी शामिल हुए थे. 1986 मेंसंस्था ने राजनीतिक सक्रियता दिखाई औरराजनीतिक क्षेत्र में अपनी माँगें उठाईंजिसे आगे चल कर लोगों कासमर्थन मिला. रणनीति के तौर पर संस्था ने अंबेडकरको राजनीतिक मार्गदर्शकऔर कबीर को धार्मिक गुरु के रूप में अपनाया और अपने कार्यक्रमों मेंदोनों के चित्र प्रयोग किए. आगे चल करसामुदायिक प्रयासों सेकबीर मंदिरों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई जिसे मेघों केकबीर की ओर झुकने और उन्हेंअपनाने की प्रवृत्ति के तौर पर देखा जा सकता है. 'पंजाब मेघ कम्युनिटी'संस्था को फिर से सक्रिय करने के प्रयास किए जाएँगे ऐसा मांडले जी ने बताया है.


स समयसंस्था के सामने अपनी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक उन्नति का लक्ष्य थालेकिनआर्यसमाज से जुड़े होने का कोई राजनीतिक लाभ मेघ समाज को नहीं मिल पा रहा था. यह मुख्य कारण प्रतीत होता है कि मेघों और उनकी संस्थाओं ने कबीर को अपनाया. दस-दस घोड़ों के साथ निकलने वाली आर्यसमाजी शोभा यात्रा चमक खोने लगी और कबीर की शोभा-यात्राओं का बोल-बाला होता गया. इस बीच मेघ समुदाय को कुछ राजनीतिक पहचान मिली है लेकिनएक पुख़्ता पहचान की अभी भी दरकार है.


आवश्यकता इस बात की है कि मेघ समुदाय में काम कर रही अन्य छोटी-बड़ी सामाजिक संस्थाओं के समेकित प्रयास ज़मीनर दिखें. ऐसातभी होगा जब वे सभी एक साथमंच पर आएँगे और ख़ुद मेंसामूहिक निर्णय लेने की काबलियत पैदा करेंगे.

(''हम इस बात पर सहमत हैं कि हम असहमत हैं. हम इस

 बात पर भी सहमत हैं कि हम फिर मिल करबैठेंगे.'')


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