पिछले दिनों श्री यशपाल मांडले जी की facebookवॉल पर उक्त फोटो देखाजिसमें बैनरपर लिखा था - ‘Megh Day, Punjab Megh Community’. यानि पंजाब मेघ कम्युनिटी नामक संस्था ने मेघ दिवस का आयोजन किया था. मेरी उत्सुकता बढ़ी और मैंने उन्हें फोन करकेपूछा कि उन्हें उन दिनों 'मेघ-दिवस'मनाने का आइडिया कैसे आया?उन्होंने बताया कि यहसंस्था उन दिनों महसूसकर रही थी कि मेघ समुदाय कोडॉ.आंबेडकर की विचारधारा से दूर रखा गया है. संस्था इस बात से प्रभावित थी कि डॉ.अंबेडकर के प्रयासों से ही मेघ समुदाय अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल हो सका. इसलिए आभार प्रकट करने के लिए अंबेडकर के जन्मदिन14 अप्रैल, 1984-85 का दिन चुना और 'मेघ-दिवस'मनाया गया. उक्त फोटोउसी का प्रमाण है.
संभव है तबमेघ समुदाय के कईअन्यलोगों में भीडॉ अंबेडकर और उनकी विचारधारा के प्रति आकर्षण और कृतज्ञता का भाव रहा हो क्योंकि एडवोकेट हंसराज भगत नेडॉ.अंबेडकर के साथ मिल कर मेघों को अनुसूचित जातियों में शामिल करानेका प्रबंध किया था.डॉ.अंबेडकर के प्रति अहसानप्रकट करने की 'पंजाब मेघ कम्युनिटी'की यह कोशिश एक ऐसी पहलकदमी थी जो उन दिनों आर्यसमाजी विचारधारा वाले मेघों में एक प्रतिक्रिया अवश्य पैदा करती. कारणों का अनुमान सहज लगाया जा सकता है. मांडले जी कहते हैं कि उनकी संस्था द्वारा दो-तीन बारआयोजित उक्त कार्यक्रमोंका जम कर विरोध किया गया. फिरऐसे कार्यक्रम करने कीकोशिशें छोड़ दी गईं.
मांडले जी बताते हैं कि उन दिनों उक्त संस्था के प्रधान श्री चूनी लाल जी थे जो टेलिफोन विभाग सेथे. आज कल इसके प्रधान श्री जी.के.भगत हैं जो दिल्ली में हैं.संस्था के कार्यक्रमों में चौ. चांद राम, मीरा कुमार जैसे नेता भी शामिल हुए थे. 1986 मेंसंस्था ने राजनीतिक सक्रियता दिखाई औरराजनीतिक क्षेत्र में अपनी माँगें उठाईंजिसे आगे चल कर लोगों कासमर्थन मिला. रणनीति के तौर पर संस्था ने अंबेडकरको राजनीतिक मार्गदर्शकऔर कबीर को धार्मिक गुरु के रूप में अपनाया और अपने कार्यक्रमों मेंदोनों के चित्र प्रयोग किए. आगे चल करसामुदायिक प्रयासों सेकबीर मंदिरों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई जिसे मेघों केकबीर की ओर झुकने और उन्हेंअपनाने की प्रवृत्ति के तौर पर देखा जा सकता है. 'पंजाब मेघ कम्युनिटी'संस्था को फिर से सक्रिय करने के प्रयास किए जाएँगे ऐसा मांडले जी ने बताया है.
उस समयसंस्था के सामने अपनी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक उन्नति का लक्ष्य थालेकिनआर्यसमाज से जुड़े होने का कोई राजनीतिक लाभ मेघ समाज को नहीं मिल पा रहा था. यह मुख्य कारण प्रतीत होता है कि मेघों और उनकी संस्थाओं ने कबीर को अपनाया. दस-दस घोड़ों के साथ निकलने वाली आर्यसमाजी शोभा यात्रा चमक खोने लगी और कबीर की शोभा-यात्राओं का बोल-बाला होता गया. इस बीच मेघ समुदाय को कुछ राजनीतिक पहचान मिली है लेकिनएक पुख़्ता पहचान की अभी भी दरकार है.
आवश्यकता इस बात की है कि मेघ समुदाय में काम कर रही अन्य छोटी-बड़ी सामाजिक संस्थाओं के समेकित प्रयास ज़मीनपर दिखें. ऐसातभी होगा जब वे सभी एक साथमंच पर आएँगे और ख़ुद मेंसामूहिक निर्णय लेने की काबलियत पैदा करेंगे.
(''हम इस बात पर सहमत हैं कि हम असहमत हैं. हम इस
बात पर भी सहमत हैं कि हम फिर मिल करबैठेंगे.'')