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Autobiography of Baba Faqir chand - बाबा फ़कीर चंद की आत्मकथा

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कुछ बातें अब पुरानी हो गई हैं लेकिन समझने योग्य हैं. स्यालकोट में बसे हमारे मेघ भगत समुदाय के लोग, आर्य समाज की विचारधारा से जुड़े और गायत्री मंत्र बोलने लगे. मेरे दादा महँगाराम ठेकेदार जी ने एक गुरु भी धारण किया हुआ था. वे ‘हरि ओम तत्सत’ का सुमिरन थे. अमृतसर में मैंने पिता श्री मुंशीराम भगत को तुलसीदास के भजन बड़े प्रेम से गाते देखा था. माता कर्मदेवी ने निर्मला देवी से नामदान लिया हुआ था और ‘अमृतवाणी’ का पाठ नियमित रूप से किया करती थीं. रोहतक में घर के पास ही राम मंदिर था. सो राम से जुड़ा. स्कूलिंग के दौरान टोहाना में सरकारी स्कूल वाले अकसर जैन साधु-साध्वियों के व्याख्यान करवाते थे. वहीं सनातन धर्म मंदिर में हरमिलापी जी के दर्शन मिले. 1966 में चंडीगढ़ में आर्यसमाजी स्वामी अग्निवेश के 10 दिवसीय शिविर में भाग लिया.

 एक सफ़र के दौरान कुछ साधुओं से यह सुन कर कि- ‘सबसे ऊँचा ज्ञान होशियारपुर का एक बाबा फकीर चंद दे रहा है’, -मेरे पिता उनके आश्रम में आने-जाने लगे. वे उनसे इतने प्रभावित हुए कि रिटायरमेंट के बाद 14 वर्ष तक उनके आश्रम में ही रहे. ‘मानवता मंदिर’ नामक वह संस्था उस समय ‘मानवता’ और ‘समता’ का बैनर लिए खड़ी थी.

1968 में जब मैं ‘मानवता मंदिर’ गया तो देखा कि वहाँ 'राधास्वामी'नाम चलता है. सिरसा में मैंने बाबा चरण सिंह जी का एक सत्संग सुन रखा था (मैं उन्हें आज भी याद करता हूँ). ऐसा लगा कि मानवता मंदिर भी राधास्वामियों की कोई शाखा होगी. लेकिन बहुत जल्दी लगने लगा कि यह केंद्र कुछ अलग है. लगभग दो महीने मैं वहाँ रहा. फिर किसी और जगह जाने की ज़रूरत नहीं रही. आखिर क्या था फकीर की शिक्षा में?

उस समय तक मैं जिस किसी धार्मिक/आध्यात्मिक शिक्षा देने का दावा रखने वाली जगह गया वहाँ (खासकर चेलों/अनुयायियों द्वारा) यही बताया जाता था कि भगवान या गुरु की मूर्ति प्रकट होती है और कि मूर्ति प्रकट होना और उनके काम हो जाना भगवान/गुरु का चमत्कार या बड़प्पन होता है. मैंने बाबा चरण सिंह का दूसरा सत्संग होशियारपुर में ही सुना था लेकिन उन्होंने कहीं ऐसा नहीं कहा कि वे किसी में प्रकट हो कर उनके काम करते हैं. हालाँकि ऐसे लाखों किस्से सुनने को मिले हैं कि उनका रूप प्रकट हो कर लोगों के काम कर जाता है. लेकिन बाबा फकीर चंद ने स्पष्ट कहा कि वो किसी के अंतर में प्रकट नहीं होता और न ही कोई चमत्कार करता है. उनका कहना था कि- “मेरा रूप लोगों में प्रकट होता है, उनके काम कर जाता है, लेकिन वो मैं नहीं होता” और कि "ऐसे चमत्कार व्यक्ति के अपने संस्कारों और विश्वास की वजह से होते हैं". बाबा फकीर चंद को मैंने एक ईमानदार गुरु के रूप में जाना और माना.

बचपन में ‘आस्तिक’ शब्द का अर्थ समझने के बाद मुझे लगा कि मैं आस्तिक हूं लेकिन कुछ बड़ा हो जाने के बाद मुझे लगने लगा कि मैं नास्तिक-सा हो रहा हूँ. यह संभवतः फ़कीर का ही प्रभाव था (इसकी व्याख्या फिर कभी). तब मुझे स्पष्ट नहीं था कि आस्तिकता, नास्तिकता और आध्यात्मिकता से परे भी कुछ है, इसलिए मैंने ‘नास्तिक-सा’ कहा है.

आध्यात्मिकता के इतने सघन अनुभव होते हुए भी फकीर के व्यक्तित्व में ऐसा क्या था जिसकी संगत में मैं नास्तिक-सा हो रहा था, इसे समझने के लिए फकीर के ही जीवन को समझना बहुत ज़रूरी है. फकीर ने कोई आत्मकथा नहीं लिखी थी. लेकिन कैलीफोर्निया, अमेरिका के दर्शनशास्त्र के एक चर्चित प्रोफेसर डॉ. डेविड सी. लेन के कहने पर फकीर ने एक आत्मकथा डिक्टेट करवाई थी. उसका हिंदी अनुवाद करने का संकल्प वर्षों से मन में था. उस अनुवाद का लिंक यह है --- अनजान वो फ़कीर

इस आत्मकथा से स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर और धर्म के रास्ते पर हम क्या-क्या तलाशते हैं, समझते हैं और करते हैं जिसका वास्तविकता और सच्चाई से वास्ता नहीं होता. हम ढूँढते कुछ हैं और निकलता आता कुछ और है.


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