Quantcast
Channel: MEGHnet
Viewing all articles
Browse latest Browse all 218

Struggle for Emancipation from Untouchability and Meghs - अछूतपन : मुक्ति संघर्ष और मेघ

$
0
0
अछूतपन : मुक्ति संघर्ष और मेघ*

जनसंख्या के आंकड़ों पर नजर डालने से मालूम होता है कि भारत के कुछ केंद्र शासित प्रदेशों सहित 12 राज्यों में मेघ समाज बसा है। इनमें जम्मू कश्मीर, राजस्थान और गुजरात में इनकी सर्वाधिक आबादी है। जैसलमेर और बाडमेर जिले में अनुसूचित जातियों की कुल आबादी की लगभग 85% आबादी मेघवाल है।

दो-एक शताब्दियाँ पहले हमारे पुरखों या बडेरों का जीवन गुलामों-सा था। यह तो शुक्र है कि हमारे समाज को 'गुलाम'के नाम से नहीं पुकारा गया। बाबा साहेब अांबेडकर के उदय के साथ मेघ समाज हर क्षेत्र में उठ खड़ा हुआ है। लेकिन इस बीच सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में जो कुछ घटित हुआ है वह शोचनीय है।

बहुसंख्यक हिन्दू अभी भी हमारे साथ दोयम दर्जे का बर्ताव क्यों करते हैं? हालाँकि इन वर्षों में मेघों ने ऐसे मुद्दों पर काबिले तारीफ एकता दिखाई और राष्ट्रीय स्तर पर अपना रोष दर्ज कराया।

विश्व इतिहास में गुलामों के नारकीय जीवन की पीड़ा को देखा जाय तो मेघ समाज पर लगी अछेप (अछूतपन) की छाप वाला उनका जीवन ठीक था - ऐसा कह सकते हैं. दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो यह 'अछूतपन'की छाप गुलामी से भी बदतर है। गुलाम समुदायों को अब तक नागरिक अधिकारों की प्राप्ति काफी हद तक हो चुकी है लेकिन अछूतपन के कलंक में दबे हुए लोग अभी भी संघर्षरत हैं। भारत के इतिहास में कोई अछूत से छूत हुआ हो इसका सबूत ढूँढना मुश्किल है। देश के आंतरिक भागों में उनके साथ भेदभाव अभी भी है. विवाह के अवसर पर वे घोड़ी पर नहीं बैठ सकते, मंदिरों के दरवाजे उनके लिए बंद हैं, हैंडपंप को ताले लगा दिये जाते हैं, खाने-पीने की अलग पंगत रखी जाती है। नौकरियों में आने और प्रगति करने के अवसरों पर एक से बुरे एक अड़ंगे लगाये जाते हैं. यानि अछूतपन का कलंक मिटा नहीं है। जो जन्म से अछूत है वह मरने तक अछूत है चाहे उसका पद या प्रतिष्ठा कुछ भी हो।

    हमारे लोगों पर आरोप रहा कि ये लोग गंदे काम करते हैं, छोटे काम करते हैं, बदसूरत देवी-देवताओं को पूजते हैं, मांवडियों को पूजते हैं, अलख थापते हैं आदि। हमारी आस्था, आराधना, बदहाली का क्रूर मजाक उड़ाया जाता है। फिर भी हमारा समाज विचलित नहीं हुआ। लेकिन इन आरोपों के लिए कौन जिम्मेदार है?
    हमारा मेघ समाज हिन्दू समाज है. लेकिन उन्होंने हमें सदियों शिक्षा से वंचित रखा, वेद-उपनिषद आदि पढ़ने से रोका। उनका ज्ञान उनके पास पड़ा रहा, इसमें हमारा क्या कसूर है। उनके ब्रह्म से हमारा अलख, उनके अद्वैत से हमारा अद्वय बड़ा रहा। हमने अपने ज्ञान और धर्म को बड़ा कहा, वेदों और उपनिषदों की जगह हम ने महाधर्म की महिमा गायी तो इसमें हमारा क्या दोष है. उन्होंने खुद हमारे लिए बुरे हालात पैदा किए और हमें ही नीच धर्म को मानने वाले कह दिया।

    गुलामी प्रथा में इस तरह की अछूतपन की दीवारें नहीं थीं। अभिजात्य वर्ग के गुण और धर्म गुलामों के सामने रहते थे। अनुकरण की मनाही नहीं थी. आजाद होने के बाद सभी नागरिक अधिकारों का निर्बाध उपयोग वे कर पाए। अछूतपन से ग्रसित समुदायों की स्थिति इसके विपरीत रही। इसके लिए कौन जिम्मेवार है? ज़रूरी है कि गुलामी की तरह अछूतपन का कलंक भी ख़त्म हो। पर कैसे?

    संविधान के अनुच्छेद 17 ने छुआछूत ख़त्म करने की घोषणा कर दी हुई है। लेकिन वह ख़त्म नहीं हुई, क्योंकि यह हिन्दू धर्म, जिसे आजकल ब्राह्मणवादी धर्म कहा जाने लगा है, से निकली है। इनके शास्त्र छुआछूत की आज्ञा देते हैं। यह धब्बा साफ-सुथरे कपडे पहनने से, ऊँचे ओहदे पर पंहुचने, मंदिरों में जाने, ऊँची से ऊँची डिग्रियां लेने, धार्मिक अनुष्ठान करने, रीति-रिवाज़ निभाने पर भी धुलने का नाम नहीं लेता. क्यों? इस पर विचार करना चाहिए। सिंध से लेकर जम्मू-कश्मीर में रहने वाले मेघ एक ही जमात के हैं। महाराजा गुलाबसिंह का उस समय सिंध-पंजाब पर अधिकार था, जम्मू-कश्मीर भी उनके अधीन था और बीकानेर पंजाब का हिस्सा था। तक़रीबन 1879 के आस-पास एक हमारे समाज के संत पुरुषकेरन वाले वाले भगता साधऔर महाराजा गुलाब सिंह के बीच लिखित समझौता हुआ और राज की मोहर से उसे पुख्ता किया गया और उसके अनुसार मेघों ने मरे जानवरों का मांस खाना छोड़ दिया। अन्य जगहों पर भी ऐसे ही परवाने लिखे गए। इससे भी उनका 'अछूतपन'नहीं गया। इसका मर्म समझना चाहिए।
श्री ताराराम द्वारा इस अवसर पर प्रकाशित पुस्तिका
आजादी से पहले कई लोग देश-देशांतर करते थे। इस देशांतर के पीछे कई कारण होते थे। अकाल की विभीषिका और सामंतों के जुल्म और अत्याचार प्रमुख कारण थे। जातिगत बेगारी और अन्याय-अत्याचार से पीड़ित मेघ लोग इधर से उधर भटकते रहे हैं। कई प्रोविंसेज में वे स्पृष्य हैं और कहीं अस्पृश्य। इसलिए कुछ लोग सुझाव देते हैं कि अछूतपन से छुटकारा पाने के लिए मेघ लोग देशांतरकर लें। लेकिन कई जगह इससे भी समस्या का समाधान नहीं हुआ.

    असली सवाल यह है कि पुरखों की जमीन पर रहते हुए, अपने इलाके में रहते हुए इस 'अछूतपन'के निर्मूलन का क्या कोई रास्ता हो सकता है? सभी लोग देशांतरण नहीं कर सकते। साफ-सफाई, टीका-तिलक, शास्त्र पठन, उनका बखान, हिन्दू धर्म के किसी पंथ से जुड़ना आदि-आदि सब किया। लेकिन जातिगत भेदभाव फिर भी रहा। यह समस्या सवर्णों की नहीं आपकी है.

    सैद्धांतिक दृष्टि से सब की आत्मा एक जैसी है किन्तु हिन्दू धर्म का व्यावहारिक स्वरूप न जाने किस वजह से इतना गन्दा है कि जो लोग गला फाडकर यह बताते हैं कि आत्मा सभी प्राणियों में एक सी है, वही दूसरों को अपवित्र और अछूत करार देते हैं. हैरानगी इस बात की है कि जो लोग हिन्दू धर्म में श्रृद्धा नहीं रखते, उन्हें ऊँची जाति के हिन्दू बराबरी की नजरों से देखते हैं। ईसाई लोग अपवित्र या अछूत नहीं हैं।

    हमें यह समझना चाहिए कि जिस धर्म के तत्व इतने ऊँचे हैं, व्यवहार में वो धर्म इतना नीचा हो, तो क्या उस धर्म में रहकर हमारा उत्थान होगा? क्या हमारी भावी पीढ़ियां इससे मुक्त होंगी? इस पर विचार ज़रूरी है।
    अछूतपन के लगे कलंक को पोंछने के लिए कई जातियों ने अपनी जाति का नाम बदलने का उपाय भी किया। नाम बदलना अच्छा है या बुरा? कौन सा नाम हो और कौन सा नहीं? इस पर वाद-प्रतिवाद होता रहा है। यह हकीकत है।

    जब हिन्दू पुनर्जागरण शुरू हुआ तो पूर्व में ब्रह्मोसमाज और पश्चिम में आर्य समाज का आन्दोलन हुआ। आर्य-समाज ने लाहौर, पंजाब, जम्मू-कश्मीर और मारवाड़ क्षेत्र में हम जैसे कई समाजों का शुद्धिकरण के द्वारा आर्यकरण कर हिन्दूकरण किया। लाहौर और स्यालकोट में आर्य समाज का पूरा जोर मेघों के शुद्धिकरण पर था। हजारों की तादाद में मेघ शुद्धिकरण के द्वारा आर्य कहला कर हिन्दू हुए।

    अछूतों का आपस में जाति भेद भी विवादपूर्ण है और ऐसे आंदोलनों से उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा। उन में रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं होता है। इन भावनाओं को कैसे मिटाया जाये। इस पर विचार करना चाहिए।

जाति का अर्थ एक अलग समूह से है। यह अलगाव ही जातियों की पहचान है और यही हिन्दू धर्म के प्राण हैं। इसलिए आपस में खान-पान आदि हो जाने पर भी भावना ख़त्म नहीं होती। इसको ख़त्म करने के लिए लोग रामस्नेही, राधास्वामी बने, या अन्यान्य साधुओं-संतों के चेले बने। इससे उनकी आध्यात्मिक प्यास चाहे मिटी हो लेकिन व्यावहारिक रूप में उनकी आपसी जातीय भावना नहीं मिटी। इसलिए अछूतों को ख़ुद एक नाम के तहत आना चाहिए, इस बात का मेघवाल समाज हमेशा समर्थन करता रहा। अगर किसी एक सर्वसम्मत नाम से उनमें एकता और सद्भावना बढे तो यह उनके लिए सुखद होगी। ऐसा मैं मानता हूँ। इस पर भी विचार होना चाहिये।
बाएँ से चौथे श्री भँवर मेघवंशी, पाँचवें श्री ताराराम - दाएँ से चौथे श्री दिलीप चंद्र मंडल, दाएँ से तीसरे श्री रामचंद्र गढ़वीर
    कई जातियों ने अपनी-अपनी जाति के नाम संस्थाएं बनायीं हैं। वे उन-उन जातियों के उत्थान के लिए काम भी करती हैं। यह सिलसिला आजादी से पहले शुरू हो गया था। मेघों के नाम से भी संस्थाएं बनीं। स्यालकोट में 'मेघ उद्धार सभा'बनी। लेकिन ऐसी संस्थाएं मेघों ने नहीं बनायीं थीं, बल्कि आर्य-समाज ने बनायी थीं। मेघ ऐसी संकल्पना में नहीं बंधे और जो सभी जातियों के सामूहिक प्रतिनिधित्व की संस्थाएं थीं, जिन में जाति विहीनता का भाव उद्बोधित होता था, उन से जुड़े, गहरे रूप से जुड़े और अपनी जातीय पहचान को खोने और सामूहिक चेतना बढ़ाने के लिए काम करने लगे। लेकिन उनकी अपनी पंचायतों का जो गणतन्त्र था वह ज्यों की त्यों बना रहा। आजादी के बाद बाबा साहेब के नाम से संगठन बनाए गए। उनमें से कई विभिन्न जातियों के सामूहिक संगठन थे जैसे हरिजन सेवक संघ, दलित उद्धार सभा, डिप्रेस्ड क्लासेस लीग, शेडूल्ड कास्ट फेडेरेशन/अपलिफ्ट यूनियन आदि।

    ‘आदि धर्म’ आन्दोलन और अभी के ‘मूलनिवासीआन्दोलन में बहुत समानताएं हैं. हमें बदलाव के लिए इसके विकल्प के लिए तैयार रहना चाहिए। आने वाली पीढ़ी को इस हेतु सक्षम बनाना चाहिए।

    सत्ता प्राप्ति के बिना कई प्रकार के सामाजिक अन्याय को समाप्त करना मुश्किल है। इस पर आजादी के दौर में बहुत लम्बी-चौड़ी बहसें हुईं, आन्दोलन हुए, वाद और प्रतिवाद हुए। हमारे समाज के कई लोग राजनीति में आये और धार्मिक क्षेत्र में आये, उनका उद्देश्य सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में मेघ समाज की गरिमा को ऊपर उठाना था। सामाजिक क्षेत्र में खिलाफत आन्दोलन की धुरी हमारा समाज ही बना रहा। उनकी ईमानदारी पर शक नहीं किया जा सकता है। वे लोग प्रतिबद्ध थे। इस समाज के कई लोगों ने साधु-संन्यासी होकर, समाज-सुधारक बनकर और नेता बनकर इस समाज का मार्गदर्शन किया। ऐसे प्रत्येक शख्स में समाज को एक नयी दिशा देने का जोश था, प्रेरणा थी और परिस्थिति थी। चाहे वे साधन संपन्न थे या साधन विपन्न, वे अपने ध्येय के प्रति अटूट आस्थावान थे। शहरों में संस्थाएं आन्दोलन कर रही थीं तो गांवों में हमारी पंचायतें पूरे संकल्प और शक्ति के साथ थोपी गई निर्योग्याताओं के विरोध में हर स्तर पर आंदोलनरत थीं। स्यालकोट के गाँवों के संदर्भ में ऐसे माहौल का वर्णन श्री मुंशीराम भगत की पुस्तक ‘मेघ-मालामें और डॉ. ध्यान सिंह के शोधग्रंथ ‘पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकासमें भी मिलता है। मेघवाल समाज का सर्वाधिक संघर्ष और आन्दोलन गांवों में रहा, क्योंकि उनकी कुल जनसँख्या का 92% भाग यानि 100 में से 92 लोग गांवों में ही रहते हैं। इस समाज के सन 1879 में हुए निर्णय की पृष्ठभूमि और बाबा साहेब के 'गंदे धंधे और बेगारी छोड़ने के आह्वान'ने इस समाज को पुनः जागृत कर दिया और फिर एक बार सवर्ण समाज के सामने - धर्म के स्तर पर, राजनीती के स्तर पर और सामाजिक स्तर पर चुनौती पैदा कर दी। मेघवालों का 'खुली-बंधी'और 'बेगारी-उन्मूलन'ऐसे ही आंदोलन थे। उनका मूल्यांकन अभी नहीं हुआ है। लेकिन राजनीतिक रूप से उस समय जो मेघवालों का वजूद दिखा था, वैसा अब नहीं है।

    अंततः हमारे जो राजनीतिक प्रतिनिधि हैं, वे माला पहनने के बाद सोचते हैं कि उनका काम हो गया, उनके समाज का काम हो गया, गैर-बराबरी और भेदभाव ख़त्म हो गया, जातिगत अन्याय और अत्याचार नहीं रहे। वे अपने समाज की समस्याओं को विरोधियों के सामने या उपयुक्त आसन के सामने उठाने में कतराते हैं। वे सामाजिक आन्दोलनों से दूर भागते हैं। केवल माला पहनने के मौके ढूँढते हैं। आजादी के बाद शायद ही किसी भी नेता ने अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध आन्दोलन किया हो या उसका नेतृत्व किया हो। ऐसा उदाहरण मिलता होगा। यह विडम्बनापूर्ण और भयावह है।

    सामूहिक प्रयत्नों में बहुत बल होता है। भलेई हमारे पास धनबल न हो लेकिन यहाँ लाखों की संख्या में हमारे लोग रहते हैं। हर साल एक-एक रूपया भी दें तो भी हर साल लाखों में फंड इकटठा हो सकता है। इसका एक उदाहरण मेघवाल समाज शैक्षणिक और शोध संस्थान, बाड़मेर ने प्रस्तुत किया है। यह की प्रकार की समस्याओं का समाधान दे सकता है. हमें खुद के द्वारा विकसित संस्थानों के माध्यम से आने वाली पीढ़ी के लिए प्रशिक्षण और ट्रेनिंग की व्यवस्था करनी होगी।

    कुल मिलाकर बात यह है कि जिस प्रकार की समाज़िक, धार्मिक और राजनीतिक स्थिति हमें चाहिए, वैसी स्थिति प्राप्त करने में हमें देर नहीं करनी चाहिए। हम लोगों की जनसंख्या अपने आप में इतनी विशाल है कि हम लोग राजनीति में या किसी धर्म में एक साथ रहते हैं तो एक सबल और उन्नत समाज का निर्माण कर लेंगे। हमारे बिना किसी की राजनीति परवान नहीं चढ़ सकती। हिन्दू धर्म का अस्तित्व भी हमारी वजह से है। अगर किसी धर्म को मानने वाले ही नहीं हों तो उस धर्म की क्या गति होगी? आप अंदाजा लगा सकते हैं।

हमारा मुक्ति-संघर्ष नया नहीं है। मुक्ति संघर्ष में बेगारी के साथ खेती की जमीनों पर जो बिचौलियों और सूदखोरों का भयावह साया था, उसके विरुद्ध भी मेघ बहुल इलाकों में एक साथ आवाज उठी। बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के प्रभाव से इस में क्रन्तिकारी बदलाव आये और जब सर छोटूराम ने 'यूनियनिस्ट पार्टी'तले आन्दोलन चलाया तो हमारे समाज ने उनका भी साथ दिया। हमारे मेघ समाज के एडवोकेट हंसराज भगतको कौन भूल सकता है। वे इस आन्दोलन के अग्रणीय मेघ पुरुष थे।

ताराराम
(लेखक- मेघवंश : इतिहास और संस्कृति)
(पूरा आलेख इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है :- मूल आलेख)






*सार प्रस्तुति: भारत भूषण


Viewing all articles
Browse latest Browse all 218

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>