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कबीरा नाम विवेक का - Kabir means The Rational One

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कबीर के साहित्य में और कबीर के बारे में भरमाने वाली बातें यहाँ-वहाँ ठूँस-ठूँस कर भरी गई हैं. कहा जाता है कि कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी की संतान थे और कमल के फूल पर पैदा हुए थे. महिलाएँ इसका उत्तर दे सकती हैं कि क्या कमल के फूल पर इंसान पैदा हो सकते हैं? किसी ने देखा हो तो बताए. मुझे इस बारे में कवियों की-सी कल्पना या प्रतीकात्मकता बिल्कुल पसंद नहीं.

मेरी नज़र में लोगों के दिल में बसे कबीर की शख़्सीयत दरअस्ल वह सयानापन है जिसने विवेक और तर्क पर बल दिया. जिसने अंधविश्वास से पीछा छुड़ाने, छुआछूत, जातिवाद, ईश्वरवाद, अवतारवाद, धार्मिकता के दायरों और ब्राह्मणवादी संस्कृति की नकारात्मक बातों के प्रति लोगों चेताया है.

कबीर के तीन-चार पीढ़ी पहले के पुरखे हिंदू थे जिन्होंने जातिवाद के कारण इस्लाम अपनाना बेहतर समझा. हिंदू और मुस्लिम समाज के बीच पले-बढ़े नूर अली और नीमा नामक दंपति के यहाँ कबीर की बनावट हुई.

कबीर बहुत जानकार और विवेकी पुरुष थे. आपने उनकी वाणी पढ़ी होगी. मैंने भी पढ़ी है. उनकी वाणी से लगता ही नहीं कि वे अनपढ़ थे. साक्षरता पंडितों ने अपने लिए रख छोड़ी थी लेकिन कबीर के अपने परिवेश में कबीर का ज्ञान और समझ पंडितों से बेहतर और व्यावहारिक हो गई. वे किसी भी धर्म, सम्प्रदाय की परवाह किये बिना इंसानियत और विवेक भरी खरी बात कहते हैं. चूँकि इस्लाम अपनाने के बाद भी जातिवाद और उसकी व्यवस्था ने उनके परिवार का पीछा नहीं छोड़ा इसलिए वे हिंदुओं-मुसलमानों में फैले जातिवाद और कट्टरपंथ पर बेबाक बोले हैं. कबीर के समय में जातिवाद के खिलाफ उनका छेड़ा कोई जन-आंदोलन साहित्य में पंडितों ने भले ही दर्ज न किया हो लेकिन कबीर की प्रखर वाणी अपना काम कर रही थी. उन्होंने जन-आंदोलन की पुख़्ता ज़मीन ज़रूर तैयार कर दी जिस पर आगे चल कर कई संत और डॉ. अंबेडकर जैसे लोग खड़े हुए.

कबीर की जीवनी चमत्कारों, रोचक-भयानक कथाओं से भर दी गई है जिनकी आज कोई ज़रूरत, महत्व या प्रासंगिकता नहीं है. लोगों को आकर्षित करने के लिए मनोरंजक कथाएँ गढ़ी जाती रही हैं. इन काल्पनिक कहानियों को यदि जाने दें तो ख़ुद कबीर एक विवेकी, तर्कवादी और तर्कशील पुरुष के रूप में सामने खड़े दिखते हैं जो व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक आज़ादी की रोशनी लिए खड़े हैं.

कबीर की वाणी सदियों से लोगों की जिह्वा पर थी लेकिन उसे साहित्य से दूर रखा गया. इसके पीछे इस तथ्य को छिपाने की कोशिश थी कि एक वैदिक परंपरा से अलग एक सशक्त धार्मिक परंपरा भारत में निरंतर चली है. भारत का सबसे अधिक प्रचलित और प्राचीन धर्म बौध धर्म है. कबीर में बौधधर्म की तर्कशीलता, नैतिक मूल्य और मानवीय दृष्टिकोण रचा-बसा है. भारत की ज़मीन से उपजे उस बौध धर्म का व्यापक प्रभाव ही है कि इस्लाम की पृष्ठभूमि जुड़ जाने के बावजूद कबीर सभी मूलनिवासी वर्गों के दिल में बसते चले गए जैसे बुद्ध बसे हुए हैं.

कबीर के समय की एकमात्र पढ़ी लिखी जमात ने कबीर की वाणी को कई तरह बिगाड़ा और कबीर की भाषा के साथ खिलवाड़ किया. आज फैसला करना मुश्किल है कि कबीर की शुद्ध वाणी कितनी बची है, फिर भी, कबीरपंथी और नाथपंथी परंपरा ने कबीर की वाणी को कुछ न कुछ बचा कर रखा है.

'रामचरित मानस'लिखने वाले तुलसीदास दुबे को भी संतों की परंपरा में रखने की कोशिश की गई. दूसरी ओर पंडितों ने क्रांतिकारी सोच वाले कबीर पर 'भक्त'यानि 'दास'का ठप्पा लगा दिया. कबीर के गाए क्रांतिचिंतन (revolutionary thinking)को स्कूलों-कालेजों के पाठ्यक्रम में बड़ी चालाकी से भक्ति का ऐसा अर्थ दिया गया कि कबीर की वाणी भिखारियों के राष्ट्र-गान जैसी दिखने लगी.लेकिन कबीर को ध्यान से पढ़ें तो पाएँगे कि कबीर की वाणी भिखारियों का नहीं स्वाभिमानियों का गीत है.

संतमत की अपनी तकनीकी शब्दावली है जिसमें 'नारी'का मतलब 'कामना'या 'इच्छा'से है. लेकिन मूर्ख पंडितों ने कुछ दोहों के मतलब में हेरा-फेरी कर के कबीर को नारी विरोधी करार दे दिया. जनमानस में दर्ज है कि कबीर सारा जीवन गृहस्थी रहे. संन्यास उनकी शिक्षा में शामिल नहीं था. वे गृहस्थी सत्पुरुष थे और गृहस्थ नारी के साथ ही होता है.

कई लोग समझना चाहेंगे कि कबीर ने ऐसा क्या किया जिसके लिए उन्हें लोग याद करते हैं. इसे इस प्रकार समझने की कोशिश करते हैं. उधर, पुराणपंथी संस्कारों में कर्म फिलॉसफी आधारित ''पुनर्जन्म''का एक विचार है जो ब्राह्मणवाद की देन है. इसका मुख्य उद्देश्य भारत की गरीब जातियों को मानसिक रूप से गुलाम बनाए रखना था ताकि गंदी व्यवस्था के मारे लोग अपने पिछले जन्म और कर्मों को ही कोसते रहें और ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध ज़ोर न पकड़े. ज़ाहिर है कि कर्म और पुनर्जन्म के ये विचार व्यवस्था आधारित अत्याचार और ग़ुलामी के विरुद्ध संभावित संघर्ष को सदियों तक रोकते रहे हैं. समय बदला है और लोगों का नज़रिया भी. वे कर्म फिलासफी और पुनर्जन्म की वास्तविकता को समझने लगे हैं. इधर, कबीर आवागमन से निकलने (''आवे न जावे मरे नहीं जनमें सोई निज पीव हमारा हो'') की बात करते हैं. यह अपने आप में प्रमाण है कि पुनर्जन्म के विचार से मुक्ति संभव है और उसमें भलाई है. भारत का प्रचीनतम दर्शन कहता है कि जो भी है 'अभी'है और 'इसी क्षण'में है. बुद्ध और कबीर 'अब'और 'यहीं'की बात करते हैं, जन्मों की नहीं. इस दृष्टि से कबीर ऐसे ज्ञानवान पुरुष हैं जिन्होंने कर्म आधारित पुनर्जन्म के विचार को काट डाला. इसी को कबीरपंथी लोग 'जय कबीर - धन्य कबीर'कहते हैं.

इस बात की पूरी संभावना है कि पंडितों ने लोकप्रिय हो चुके कबीर के साथ किसी विधवा ब्राह्मणी या एक रामानंद नामक ब्राह्मण की कथा इसलिए जोड़ी ताकि कबीर के नाम पर वे मंदिर बना लें जो ब्राह्मणों का एक बड़ा व्यवसाय भी है. लेकिन आधुनिक खोजों में बताया जा रहा है कि कबीर और रामानंद समकालीन थे ही नहीं. यानि वे कभी आमने-सामने हुए ही नहीं थे. दूसरी ओर कबीरपंथियों के कब्ज़े वाले कबीर मंदिरों में चढ़ा पैसा कबीरपंथियों के सामाजिक विकास के लिए उपलब्ध हो सकता है जिसका अपना महत्व है.वे ऐसे मंदिरों में अपने आस-पास के बच्चों के शिक्षण-प्रशिक्षण का प्रबंध करने लगे हैं.

मेरा इस बात में यकीन है कि कबीर सन् 1398 में लहरतारा के पास नीमा के यहाँ हुए. युवा कबीर का विवाह लोई से हुआ जिसने सारा जीवन परिवार-पति की सेवा में लगाया. उनकी दो संतानें हुई बेटा कमाल और बेटी कमाली. कमाली की गणना भारत की महिला संतों में होती है. कबीर ने जीवन भर मेहनत से कपड़ा बुना-बेचा और परिवार को पाला.


कबीर को प्रताड़ित करने और सताए जाने की बातें उनकी जीवनियों में आती हैं. यहाँ इस बात को ठीक से समझ लेना ज़रूरी है कि कबीर यदि भक्त थे और केवल भक्ति करते थे तो किसी को इस पर क्या आपत्ति हो सकती थी. असल बात यह है कि कबीर जन-जागृति लाने का कार्य कर रहे थे और उनका वह कार्य अब काफी गति पकड़ चुका है.


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