अपने जीवन में 1965 और 1971 के युद्धों का अनुभव हुआ जो बड़े पैमाने पर लड़े गए थे. घरों की बत्तियाँ बुझा दी जाती थीं. सायरन की आवाज़ पर हम खंदकों (trenches) में दुबक जाते थे. बमों के फटने की आवाज़ें सुनी. रात में आकाश में उड़ते ट्रेसर देखते थे और अगले दिन अख़बारों में युद्ध की सुर्खियाँ पढ़ते. रात में या दिन में टैंकों, तोपों की मूवमेंट देखते. माल गाड़ियों पर रखे टैंकों के साथ जाते फौजियों को देख कर जोश भर-भर आता था. दिल करता था कि कोई पाकिस्तानी जासूस हाथ आ जाए तो उसे ढेर कर दें. एक शरीफ़ मलेशियन नागरिक हमारे हाथों पिटने से बच गया जिसके बारे में किसी ने अफवाह फैलाई थी कि वह पाकिस्तानी जासूस है. युद्धविराम हुआ और युद्धोन्माद भी कम होता गया.
कारगिल एक सीमित युद्ध था. ज़रूरी था लेकिन सीमित था. वाजपेयी सरकार ने बड़ी कुशलता से बिना युद्ध का पागलपन फैलाए उसे जीता. बहुत से फौजियों की जानें गईं जो तकलीफ़ और दर्द दे गईं.
अब आया है एक सर्जिकल ऑपरेशन जो अपने साथ कई रहस्य लेकर आया. आमलोगों के लिए तकनीकी युद्ध नीतियाँ रहस्य रहेंगी. कूटनीतिक चालें, कूटनीतिक बयानबाज़ियाँ होंगी. युद्ध है तो सिविल क्षेत्र में अफवाहें फैलेंगी. बार्डर पर असल में क्या होता है यह केवल युद्ध लड़ रहे फौजी जानते हैं.
'सर्जिकल ऑपरेशन'को लेकर मीडिया से अधिक सोशल मीडिया सक्रिय और परेशान रहा. सरकार की कार्रवाई की प्रशंसा भी हुई और उस पर सवाल भी उठे. नेशनल मीडिया ने युद्ध का गर्म माहौल बनाने का काम किया. सोशल मीडिया ने फौजियों की कुर्बानी और उनके परिवारों की पीड़ा को रेखांकित किया और सीमा पर बसे भारतीयों पर मंडराते ख़ौफ़ और उन्हें हो रहे आर्थिक नुकसान की बात की जो युद्ध का साइड इफैक्ट है और कई परिवारों को गरीबी में धकेल जाता है.
कुल मिला कर युद्धोन्माद फैला रहे कुछ चैनलों और 'भक्तों'पर तीखे सवाल उठे हैं. मैं भी मानने लगा हूँ कि बड़बोले नेतृत्व के मुकाबले इंदिरा गाँधी, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह जैसा नेतृत्व अधिक कारगर और संतोषजनक होता है.
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बेवकूफों की कमी नहीं पाकिस्तान में |